Monday, July 30, 2012

पसमांदा को अपने अम्बेडकर का इंतजार

खालिद अनीस अंसारी

पसमांदा विमर्श ने जम्हूरियत के सवाल को मुस्लिम राजनीति का केन्द्रीय प्रश्न बना दिया है और अम्बेडकर की तर्ज़ पर यह ऐलान कर दिया है कि मुसलमानों के अंदर भी जाति का सवाल केवल सामाजिक सुधार के सहारे नहीं बल्कि राजनीतिक आंदोलन के ज़रिये भी हल होगा। पसमांदा का नामकरण हो चुका है और अब यह आंदोलन तेज़ी से फैल रहा है

छह दिसम्बर 2007 को जब पूरे देश में मुसलमान संगठन बाबरी मस्जिद के विध्वंस की सोलहवीं वषर्गांठ पर शोक और आक्रोश व्यक्त कर रहे थे, बिहार के चम्पारण जिले के एक छोटे से गांव रामपुर बैरिया में उसी रात मुसलमानों की वर्चस्वशाली जाति अशरफ ने अपने ही मज़हब की कमज़ोर जातियों के 6 घरों को आग लगाकर जला डाला। यह विवाद कुछ महीने पहले इबादत के हक को लेकर शुरू हुआ था। एक दिन गांव की मस्जिद में नमाज़ के दौरान कुछ सैयद और पठान तबके के लोगों ने कोहनी मार कर अंसारी (बुनकर, जुलाहे) और मंसूरी (धुनिया) जैसी कमज़ोर बिरादरियों के लोगों को पीछे की कतारों में नमाज़ पड़ने को कहा। वैसे तो यह आम बात थी और मज़बूत बिरादरियों का अल्लाह के घर में आगे की सफों में नमाज़ पढ़ने पर अलिखित आरक्षण रहा करता था, मगर उस दिन हवा का रु ख कुछ और ही था। इन दबी-कुचली बिरादरियों के कुछ नौजवान लोगों ने जब इसका विरोध किया तो उनको मस्जिद के बाहर जबरन खदेड़ दिया गया। लिहाज़ा, गांव की इन जातियों ने इस मस्जिद का बहिष्कार कर अपने लिए छप्पर और घास- फूस की अलग मस्जिद बना ली और वहां नमाज़ अदा करना शुरू किया। इस पर गांव की दबंग मुस्लिम जातियों के अहम को ठेस लगी और एक दिन चढ़ाई कर दी उन्होंने जुलाहों और धुनियों की इस मस्जिद पर। अगड़े अशरफ तबके मस्जिद फूंक कर बगावत की इसी दास्तान को वह दफनाना चाहते थे। वे हमेशा ऐसा करते आए थे लेकिन अब समय करवट ले रहा था। जम्हूरियत की ताज़ा हवा रामपुर बैरिया में भी दस्तक देने लगी थी। पसमांदा संगठनों ने इस मुद्दे को जोरशोर तरीके से उठाया और अख़्ाबारों में इस खबर को जगह भी मिली। गांधी के नाम से जुड़े चम्पारण के इस गांव में पसमांदा मुसलमानों के लिए आजादी 1947 में नहीं बल्कि थोड़ी देर से 2007 में पहुंची!

जाति सिर्फ हिन्दुओं की बीमारी नहीं
यह अकेला उदाहरण नहीं है अकलियतों में जातीय अंतर्विरोधों का। पसमांदा आख्यान इस तरह के प्रसंगों से भरे पड़े हैं। जाति सिर्फ हिन्दुओं की बीमारी नहीं बल्कि भारत में सामाजिक संस्तरण का मूल तत्व और प्रधान अंतर्विरोध है। इस कारण यह यहां के सारे अल्पसंख्यक समाजों में भी नज़र आता है। जहां मुसलमान अशरफ़, अजलाफ़ और अरजाल समूहों में बंटे हुए हैं, वहीं सिख समाज जाट/खत्री और मज़हबी समूहों में और ईसाई सिरियन/सारस्वत और दलित ईसाइयों में विभाजित हैं। गौर से देखा जाए तो धर्म की राजनीति, चाहे वह बहुसंख्यकों की हो या अल्पसंख्यकों की, उच्च जातियों की राजनीति है। सारे धार्मिंक गुरु -नेता और प्रतिष्ठानों-इदारों में उच्च जातियों का ही वर्चस्व पाएंगे। जहां हिन्दू धार्मिंक राजनीति पर सवर्णो का नियंतण्रहै, वहीं मुसलमानों में अशरफ तबके का वर्चस्व है। सत्ता की गलियों में भी मुख्यत: सारे धर्मो की उच्च जातियां ही पहुंच पाती हैं। इसके अतिरिक्त, जाति मुसलमानों में रोटी-बेटी के रिश्तों में, कमज़ोर जातियों का उपहास उड़ाना, विभिन्न जातियों के अलग कब्रिस्तान होना, कुछ मस्जिदों में नमाज़ के दौरान कमज़ोर जातियों को पीछे की सफों में ही खड़े-खड़े होने के लिए बाध्य करने, दलित मुसलमान तबकों के साथ कुछ इलाकों में छुआछूत के प्रचलन, अशरफिया जातियों के कुछ इलाकों में कमज़ोर जातियों की मस्जिदों को जलाने इत्यादि में नज़र आता है। जहां तक धार्मिंक वैधता का प्रश्न है मसूद फलाही की उर्दू में लिखित किताब ‘हिन्दुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान’ यहां के प्रमुख उलेमा और मौलवियों के जातिवादी चरित्र को साफ़ तौर पर नुमाया करती है।

पसमांदा सियासत की जमीन
यही ठोस पृष्ठभूमि है पसमांदा राजनीति और विमर्श के आगाज़ का। ‘पसमांदा’, जो कि एक फारसी शब्द है, का अर्थ होता है ‘वह जो पीछे छूट गया’। बिहार में 1998 में अली अनवर के नेतृत्व में ‘ऑल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़’ के गठन के बाद और उनकी लिखित किताब ‘मसावात की जंग (2001)’ के चलते यह शब्द काफी लोकप्रिय हुआ। इस किताब ने पसमांदा मुसलमानों की दयनीय स्थिति के बारे में ज़ोरदार बहस और पसमांदा राजनीति की ज़मीन तैयार की। बेशक मुस्लिम समाज में कमज़ोर जातियों के आंदोलनों का इतिहास पुराना है। आजादी के पहले से ऑल इण्डिया मोमिन कान्फ्रेंस के हस्तक्षेप, खास तौर पर जिन्ना के दो राष्ट्रों के सिद्धान्त का सीधा विरोध, काबिलेतारीफ है। मगर अली अनवर के हस्तक्षेप के बाद इस आंदोलन ने एक गुणात्मक छलांग लगाई है, इस पर दो मत नहीं हो सकते हैं।

अशराफिया सियासत को चुनौती
अगर जनसंख्या के हिसाब से देखें तो अजलाफ़ (पिछड़े) और अरजाल (दलित) मुसलमान भारतीय मुसलमानों की कुल आबादी का कम-से-कम 85 फीसद होते हैं। पसमांदा आंदोलन, बहुजन आंदोलन की तरह, मुसलमानों के पिछड़े और दलित तबकों की नुमाइंदगी करता है और उनके मुद्दों को उठाता है। यह भारत की मुख्यधारा के मुसलमानों की अकलियती सियासत को अशराफिया राजनीति मानता है और उसे चुनौती देता है। आखिर क्या है अशराफिया राजनीति? यह मुसलमानों के अभिजात्य उच्च-जातियों की राजनीति है जो कि सिर्फ कुछ सांकेतिक और ज•बाती मुद्दों को-जैसे कि बाबरी मस्जिद, उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम विविद्यालय, पर्सनल लॉ इत्यादि को उठाती रही है। इन मुद्दों पर गोलबंदी करके और अपने पीछे मुसलमानों का हुजूम दिखा के मुसलमानों के अशराफ़ तबके और उनके संगठन,जमीअत-ए-उलेमा-ए-हिन्द, जमात-ए-इस्लामी, आल इण्डिया पर्सनल लॉ बोर्ड, मुस्लिम मजलिस-ए-मसावरात, पॉपुलर फ्रण्ट ऑफ इण्डिया इत्यादि-अपना हित साधते रहे हैं और सत्ता में अपनी जगह पक्की करते हैं। इनका पूरा तर्ज़े-अमल गैर-जम्हूरी है और इस तरह के जज्बाती मुद्दों के ज़रिये यह अपना प्रतिनिधित्व तो कर लेते हैं मगर पसमांदाओं की बलि चढ़ा कर।

अल्पसंख्यक सियासत से फायदा किसे
अगर पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा की लिस्ट उठा कर देखें तो पाएंगे कि तब तक चुने गए सभी 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे, और इन 400 में 340 अशराफ और केवल 60 पसमांदा तबके से थे। अगर भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी की 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफिया आबादी 2.1 फीसद (जो कि मुसलमान आबादी के 15 फीसद हैं) के आसपास होगी। हालांकि, लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.5 प्रतिशत है जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज्यादा है। साफ़ ज़ाहिर है कि मुस्लिम/अल्पसंख्यक सियासत से किस तबके को लाभ मिल रहा है। इसलिए पसमांदाओं के हलक के नीचे सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोटरे नहीं उतरती हैं, जिनमें सारी मुस्लिम कौम को पिछड़ा दिखाने और सारे मुसलमानों को आरक्षण के दायरे में लाने पर बहसें की जा रही हैं। अगर सच्चर रिपोर्ट ने ‘जाति’ को अपनी शोध पद्धति का एक बुनियादी तत्व बनाया होता तो शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, वगैरह में भी हमें अशराफिया तबके के संदर्भ में उतने ही चौंकाने वाले आंकड़े मिलते जितना कि हमें उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सम्बंध में मिले हैं। यह बात साफ़ हो जाती कि मुसलमानों में कौन सा वर्ग वंचित वर्ग है?

टूटी मुसलमानों की एकांगी तस्वीर
पसमांदा विमर्श की एक बड़ी कामयाबी यह रही है कि उसने मुसलमानों की एकांगी तस्वीर को तोड़ दिया है, उसी तरह जिस तरह दलित-बहुजन आंदोलन ने हिन्दुओं की एकांगी पहचान में सेंध लगाई थी। इससे धर्म की पहचान कमज़ोर पड़ रही है और ‘समुदाय’ की वैकल्पिक व्याख्याओं को जगह मिली है। अली अनवर ने कुछ साल पहले कहा था-‘हम शुद्दर हैं..शुद्दर। भारत के मूलनिवासी हैं, बाद में मुसलमान हैं!’. एक तरफ तो इस सूत्रीकरण से उन्होंने पसमांदा तबकों का उन अशराफ मुसलमानों से, जो अपने आप को अरब या ईरान से जोड़ते हैं, फर्क बताया, वहीं दूसरी ओर धर्म की एकता की जगह सारे धर्मो की कमज़ोर जातियों की बहुजन एकता की सम्भावनाओं की ओर भी इशारा किया। उत्तर प्रदेश और बिहार में आजकल ‘दलित-पिछड़ा एक समान, हिन्दू हो या मुसलमान’ का नारा चल निकला है। ज़ाहिर है, सारे धर्मो की कमज़ोर जातियों की एकता प्रतिस्पर्धात्मक साम्प्रदायिकता और सेकुलरिज्म/साम्प्रदायिकता के विमर्श को कमज़ोर बनाएगा और भारत में एक नई राजनीति का आगाज़ करेगा। अगर जाति हिन्दुस्तान की बुनियादी पहचान है तो किसी जाति की इतनी संख्या नहीं है कि वह अपने आप को बहुसंख्यक कह सके । जब कोई बहुसंख्यक ही नहीं तो फिर अल्पसंख्यक का कोई मायने नहीं रह जाता.

राजनीतिक आंदोलन से हल होगा जाति का सवाल
कुल मिलाकर कहा जाये तो पसमांदा विमर्श ने जम्हूरियत के सवाल को मुस्लिम राजनीति का केन्द्रीय प्रश्न बना दिया है और अम्बेडकर की तर्ज़ पर यह ऐलान कर दिया है कि मुसलमानों के अंदर जाति का सवाल केवल सामाजिक सुधार के सहारे नहीं बल्कि राजनीतिक आंदोलन के ज़रिये ही हल होगा। अभी हाल में फारबिसगंज में पसमांदा मुसलमानों के संहार के बाद पसमांदा तबके से आए नेताओं-जैसे अली अनवर, डॉ. एजाज़ अली, सलीम परवेज़, डॉ. अयूब, शब्बीर अंसारी-की .खामोशी अत्यंत हैरान करने वाली है। इतिहास में जाकर देखें तो दलितों में बाबा साहेब अम्बेडकर के रेडिकल एजेण्डे को कुंद करने के लिए ही कांग्रेस ने बाबू जगजीवन राम को आगे बढ़ाया था। दलित राजनीति में अम्बेडकर पहले आए और बाद में जगजीवन राम। पसमांदा तबकों का अलमिया यह है कि उन्हें बाबू जगजीवन राम जैसे नेता पहले मिले लेकिन बाबासाहेब अम्बेडकर जैसा लीडर आंखों से अब भी ओझल है। पसमांदा तबकों को अब इंतज़ार है अपने अम्बेडकर का जो उनके रेडिकल एजेण्डे को ज़मीनी हकीकत बना सके।


[This article was published in Hastakshep, Rashtriya Sahara (Hindi), 16th July, 2011]

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