याकूब कवि
आपको यकीन तो न आए शायद
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं ज़िक्र ही नहीं
अभी भी, एक बार फिर से, उनकी दसवीं या ग्यारहवीं पीढ़ी
जिन्होंने खोई थी अपनी शानो-शौकत
बात कर रही है हम सब के नाम पर
क्या इसी को कहते हैं अनुभव की लूट?
सच तो यही है—नवाब, मुस्लिम, साहेब, तुर्क—
जिनको भी खिताब किया जाता है ऐसे, आते है उन वर्गों से
जिन्होंने खोई अपनी सत्ता, जागीर, नवाबी और पटेलिया शान-शौकत
लेकिन तब भी सुरक्षित कर ली उन्होंने, कुछ निशानियाँ उस गौरव की
जबकि हमारी जिंदगियां सिसकती रहीं हमारे हाथों और पेट के बीच
हमारे पास तो कभी कुछ महफूज़ करने को था ही नहीं
आखिर हम बयाँ भी क्या करते...?
हम, जो अपनी माँ को ‘अम्मा’ कहते थे
नहीं जानते थे कि उनको ‘अम्मीजान’ कहा जाता है
अब्बा, अब्बाजान, पापा—-बाप को ऐसे ही संबोधित करते हैं, हमको बताया गया
आखिर मालूम भी कैसे होता—हमारी आय्या ने तो कभी ये सिखाया ही नहीं
हवेली, चारदीवारी, खल्वत, पर्दा—-
हम फूस के महलों में बसर करने वाले क्या जानें?
कहा था मेरे दादा ने, नमाज़ का मतलब उठ्ठक-बैठक!
बिस्मिल्लाहइर रहमानिर रहीम, अल्लाह-ओ-अकबर, रोज़ा की भाषा
कहाँ सीखी हमने कभी
हमारे लिए त्यौहार का मतलब था अचार-भात
उनके लिए बिरयानी, भुना गोश्त, पुलाव और शीर खोरमा
वह, पहने हुए शेरवानी, रूमी टोपी, सलीम शाही जूते
इत्र की खुशबू में नहाए हुए
और हम, अपने चिथड़ों में मस्त
आपको यकीं तो न आएगा अगर हम बयां भी करें
और आखिरकार हमें ही शर्मिंदा होना पड़े शायद
सेंटूसाबू, उड्डान्डु , दस्तगीरी, नागुलू , चिना आदाम,
लालू, पेदा मौला, चीनामौला, शेख श्रीनिवासु,
बेटमचारला मोइनु, पातिकत्ता मालसूरू—क्या यह हमारे नाम नहीं?
शेख, सैय्यद, पठान—-अपने खानदानों के शजरों की अकड़ में
कभी आने भी दिया तुमने हमें अपने करीब !
लद्दाफ, दूदेकुला, कसाब, पिनजरी...
हम रहे हमेशा अवशेष उस समय के
जब हमारे पेशे ने जाति बन कर हमें डसा था
हम ‘भिश्ती’ बने, तुम्हारे घरों तक पानी ढोने के वास्ते
और ‘धोबी’ और ‘धोबन’, तुम्हारे कपड़े धोने के लिए
‘हज्जाम’, जब काटे केश तुम्हारे
और ‘मेहतर’, ‘मेहतरानी’ जब धोये तुम्हारे पाखाने
हम रहे हमेशा अवशेष उस समय के
जब हमारे पेशे ने जाति बन कर हमें डसा था
वह कहते हैं, ‘हम सब मुसलमान हैं’ !
सहमत हैं हम भी, तो फिर इस भेद-भाव का क्या मतलब?
अच्छा ही लगेगा हमको—-अगर यह खुदाई नुमाया करे उन हिसाबों को
जो लंबे अरसे से दफन हैं, क्यों ऐतराज़ होगा हमें भला!
अब क्या जानना बाकी रह गया है साझे दुश्मन के बारे में
अब तो राज़ फाश करना है इस साझी मैत्री का !
हाँ, हम ऐसा मानते हैं: जो भी शोषित हैं वह दलित हैं
परन्तु अब पुन: परिभाषित करना पड़ेगा शोषण को भी !
आश्चर्य, आश्चर्य —-जो ज़बान हम बोलते हैं हमारी नहीं
बताया जाता है कुछ ऐसा ही हमें !
हम उस ज़बान को नहीं जानते जिसे तुम हमारी कहते हो
बन गए हैं हम ऐसे लोग जिनकी कोई मातृभाषा ही नहीं
बहिष्कार करते हो क्योंकि तेलुगु बोलते हैं
‘मुसलमान हो कर भी बड़ी अच्छी तेलुगु बोलते हो तुम’
मुझे खुश होना चाहिए या उदास, पता नहीं!
हमारे सारे ख्वाब तेलुगु हैं, हमारे आंसूं भी तेलुगु हैं
जब हम बिलबिलाते हैं भूख से, या कराहते हैं दर्द से
अरे, हमारी तो सारी अभिव्यक्ति ही तेलुगु है!
पहेली बन जाते थे हम जब नमाज़ अदा करने को कहा जाता था
हैरत से कूद पड़ते थे जब आजान का स्वर कान में पड़ता था
हम तो तलाशते थे मौसीकी के रागों को सूरों में
जब इबादत करने को कहा गया अनजानी ज़बान में
खो दिया अधिकार हमने इबादत के लुत्फ़ का !
आपको यकीन तो न आए शायद
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं ज़िक्र ही नहीं
आत्म-सम्मान तो एक दस्तरख्वान है, फैला हुआ सब के सामने
यह विशेषाधिकार नहीं अशराफ़ का
इस से फर्क नहीं पड़ता कौन रौंदता है इज्ज़त अपने भाई की
विश्वासघात तो आखिर विश्वासघात ही है
सबसे बड़ा धोखा तो अनुभव की लूट है !
अनु: खालिद अनीस अंसारी
(मूल तेलुगु से अनुवाद नरेन बेडिदे के सहयोग से)
Yakoob Kavi |
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं ज़िक्र ही नहीं
अभी भी, एक बार फिर से, उनकी दसवीं या ग्यारहवीं पीढ़ी
जिन्होंने खोई थी अपनी शानो-शौकत
बात कर रही है हम सब के नाम पर
क्या इसी को कहते हैं अनुभव की लूट?
सच तो यही है—नवाब, मुस्लिम, साहेब, तुर्क—
जिनको भी खिताब किया जाता है ऐसे, आते है उन वर्गों से
जिन्होंने खोई अपनी सत्ता, जागीर, नवाबी और पटेलिया शान-शौकत
लेकिन तब भी सुरक्षित कर ली उन्होंने, कुछ निशानियाँ उस गौरव की
जबकि हमारी जिंदगियां सिसकती रहीं हमारे हाथों और पेट के बीच
हमारे पास तो कभी कुछ महफूज़ करने को था ही नहीं
आखिर हम बयाँ भी क्या करते...?
हम, जो अपनी माँ को ‘अम्मा’ कहते थे
नहीं जानते थे कि उनको ‘अम्मीजान’ कहा जाता है
अब्बा, अब्बाजान, पापा—-बाप को ऐसे ही संबोधित करते हैं, हमको बताया गया
आखिर मालूम भी कैसे होता—हमारी आय्या ने तो कभी ये सिखाया ही नहीं
हवेली, चारदीवारी, खल्वत, पर्दा—-
हम फूस के महलों में बसर करने वाले क्या जानें?
कहा था मेरे दादा ने, नमाज़ का मतलब उठ्ठक-बैठक!
बिस्मिल्लाहइर रहमानिर रहीम, अल्लाह-ओ-अकबर, रोज़ा की भाषा
कहाँ सीखी हमने कभी
हमारे लिए त्यौहार का मतलब था अचार-भात
उनके लिए बिरयानी, भुना गोश्त, पुलाव और शीर खोरमा
वह, पहने हुए शेरवानी, रूमी टोपी, सलीम शाही जूते
इत्र की खुशबू में नहाए हुए
और हम, अपने चिथड़ों में मस्त
आपको यकीं तो न आएगा अगर हम बयां भी करें
और आखिरकार हमें ही शर्मिंदा होना पड़े शायद
सेंटूसाबू, उड्डान्डु , दस्तगीरी, नागुलू , चिना आदाम,
लालू, पेदा मौला, चीनामौला, शेख श्रीनिवासु,
बेटमचारला मोइनु, पातिकत्ता मालसूरू—क्या यह हमारे नाम नहीं?
शेख, सैय्यद, पठान—-अपने खानदानों के शजरों की अकड़ में
कभी आने भी दिया तुमने हमें अपने करीब !
लद्दाफ, दूदेकुला, कसाब, पिनजरी...
हम रहे हमेशा अवशेष उस समय के
जब हमारे पेशे ने जाति बन कर हमें डसा था
हम ‘भिश्ती’ बने, तुम्हारे घरों तक पानी ढोने के वास्ते
और ‘धोबी’ और ‘धोबन’, तुम्हारे कपड़े धोने के लिए
‘हज्जाम’, जब काटे केश तुम्हारे
और ‘मेहतर’, ‘मेहतरानी’ जब धोये तुम्हारे पाखाने
हम रहे हमेशा अवशेष उस समय के
जब हमारे पेशे ने जाति बन कर हमें डसा था
वह कहते हैं, ‘हम सब मुसलमान हैं’ !
सहमत हैं हम भी, तो फिर इस भेद-भाव का क्या मतलब?
अच्छा ही लगेगा हमको—-अगर यह खुदाई नुमाया करे उन हिसाबों को
जो लंबे अरसे से दफन हैं, क्यों ऐतराज़ होगा हमें भला!
अब क्या जानना बाकी रह गया है साझे दुश्मन के बारे में
अब तो राज़ फाश करना है इस साझी मैत्री का !
हाँ, हम ऐसा मानते हैं: जो भी शोषित हैं वह दलित हैं
परन्तु अब पुन: परिभाषित करना पड़ेगा शोषण को भी !
आश्चर्य, आश्चर्य —-जो ज़बान हम बोलते हैं हमारी नहीं
बताया जाता है कुछ ऐसा ही हमें !
हम उस ज़बान को नहीं जानते जिसे तुम हमारी कहते हो
बन गए हैं हम ऐसे लोग जिनकी कोई मातृभाषा ही नहीं
बहिष्कार करते हो क्योंकि तेलुगु बोलते हैं
‘मुसलमान हो कर भी बड़ी अच्छी तेलुगु बोलते हो तुम’
मुझे खुश होना चाहिए या उदास, पता नहीं!
हमारे सारे ख्वाब तेलुगु हैं, हमारे आंसूं भी तेलुगु हैं
जब हम बिलबिलाते हैं भूख से, या कराहते हैं दर्द से
अरे, हमारी तो सारी अभिव्यक्ति ही तेलुगु है!
पहेली बन जाते थे हम जब नमाज़ अदा करने को कहा जाता था
हैरत से कूद पड़ते थे जब आजान का स्वर कान में पड़ता था
हम तो तलाशते थे मौसीकी के रागों को सूरों में
जब इबादत करने को कहा गया अनजानी ज़बान में
खो दिया अधिकार हमने इबादत के लुत्फ़ का !
आपको यकीन तो न आए शायद
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं ज़िक्र ही नहीं
आत्म-सम्मान तो एक दस्तरख्वान है, फैला हुआ सब के सामने
यह विशेषाधिकार नहीं अशराफ़ का
इस से फर्क नहीं पड़ता कौन रौंदता है इज्ज़त अपने भाई की
विश्वासघात तो आखिर विश्वासघात ही है
सबसे बड़ा धोखा तो अनुभव की लूट है !
अनु: खालिद अनीस अंसारी
(मूल तेलुगु से अनुवाद नरेन बेडिदे के सहयोग से)
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