Thursday, February 13, 2020

लद्दाफ़नी

(अंग्रेज़ी से अनुवाद: अर्जुमंद आरा)

शाहजहाना एक नौजवान तेलुगू शायरा हैं. उनका पहला कविता संग्रह नकाबा (नक़ाब) है जिसमें  लिंग-भेद, सांस्कृतिक और सांप्रदायिक असहिष्णुता जैसे विषयों पर नज़्में शामिल हैं. उनकी एक नज़्म 'लद्दाफ़नी' का अनुवाद पेश है. यह नज़्म तेलुगू शायरी के एक संकलन 'अलाव: मुस्लिम संस्कृति कवित्वम' से लिया गया है जिसमें मुस्लिम तहज़ीब से सम्बंधित नज़्में शामिल हैं. उर्दू अनुवाद  नरेन बेदीदे के अंग्रेज़ी तर्जुमे पर आधारित है. 'लद्दाफ़नी' से आशय है वह स्त्री जो रुई धुनने वाली जाति 'नद्दाफ़' या 'लद्दाफ़' से हो.



लोग कहते हैं मैं क़िस्मत वाली थी
इसीलिए तुर्क (१) घराने में पैदा हुई
गोया ये ऐसा सौभाग्य है जिसकी प्राप्ति नामुमकिन थी
बस इसी से, मेरे अपनों ने तय कर लिया:
वे मुझे एक सच्ची मुस्लमान बनाएंगे

किस रिश्तेदार को सलाम करते हुए कितना झुकूं,
मेरे लिए कौन कौन महरम हैं, और कौन ना-महरम... (२)
सर को पल्लू से ढाँपे रखना क्यों ज़रूरी है ___
कितने निरर्थक हैं रीति-रिवाज और एक अध-कचरी अर्जित ज़ुबान
मैं दो जबड़ों के बीच फंसा हुआ पान का बीड़ा बन गई हूँ
लेकिन मेरे लोगों ने तय कर लिया है:
वे मुझे ख़ालिस मुस्लमान लड़की बनाएंगे!

यह जानने के बावजूद कि मुझे भेंट चढ़ाया जा रहा है,
बिल्कुल किसी बेज़ुबान जानवर की तरह,
जब मैं किसी वलीमे या गुल-पोशी के जश्न में शरीक होती हूँ
तो ज़री और उर्दू की सरसराहट और लश्कारों के दरमियान
मेरी आवाज़ सिकुड़कर और सिमट कर
एक बेकस सूती साड़ी में दुबक जाती है.
बेबसी का एक अनदेखा एहसास


मेरा मुँह ऐसे जकड़ लेता है
मानो इस पर लगाम कस दी गई हो
मैं निश्चल खड़ी रहूं, तो भी
उनकी पलकों की शाख़ों के बीच से, घूरती नज़रों के बगूले उठते हैं
और मुझे सारे हॉल में चकराते फिरते हैं.
मैं कितना जानती हूँ कितना नहीं जानती ___ उर्दू के मेरे ज्ञान को
वे अपनी ज़ुबांदानी और महारत की कसौटी पर परखते हैं.
और नतीजे में आप देख सकते हैं
उनके चेहरों पे उजागर उपहासपूर्ण मुस्कान को
और शर्मिंदगी के मारे मेरे आँसू,
जो अपनी हदों से बाहर आने का हौसला नहीं रखते,
मेरी आँखों में ही सिमट जाते हैं___ बिलकुल मेरी तरह

बतौर इंसान मुझे कोई नहीं पहचानता 
धुनकी हुई रुई के सफ़ैद गालों की तरह
वे महज़ अपने शब्दों से मुझको उड़ा देना चाहते हैं।
इसके बावजूद मेरे अपनों ने मान लिया है
कि मैं एक सच्ची पक्की मुस्लमान लड़की बन गई हूँ.

मैं अवतरण चिन्हों के अंदर लिखा जवाब क्यों बनूं?___
नामालूम रीति-रिवाजों का,
ऐसे दुरूद और (क़ुरानी) पंक्तियों का जिनका उच्चारण भी नहीं कर सकती?
उनके चेहरों पे लिखे अनंत सवालों का?

जब मेरा शौहर
मेरी दूदकुलाही (३) शनाख़्त धारण नहीं कर सकता
तो में ख़ुद पर असली मुस्लिम होने की मुहर क्यों लगवाऊं?
जब कि निर्धनता मेरे सपनों को निगल चुकी,
और भूख मेरे वक़्त को.
मेरे बचपन ने, जो पायदानों पर सिसकते हुए गुज़रा,
सिर्फ़ गद्दों पर सोज़न-कारी(४) करना सीखा
फिर मैं उस उर्दू या अरबी का सियापा क्यों करूं
जो मैंने सीखी ही नहीं?

अब मैं सबके सामने सौ बार चिल्लाऊंगी 
हाँ मैं लद्दाफ़नी हूँ!
हाँ मैं लद्दाफ़नी हूँ!
और
लद्दाफ़नी ही रहूंगी!!
 ........................ 

नोट्स: (१)। दक्षिण भारत में मुस्लमान के लिए एक शब्द 'तुर्क' भी प्रयुक्त होता है। (२) महरम: परिवार के वे पुरुष जिनसे पर्दा नहीं करना होता क्योंकि इनसे शादी जायज़ नहीं। नामहरम: वे सब पुरुष जो महरम नहीं हैं. ((३) दूदकुला: नद्दाफ़ या धुनिया या रुई धुनने वाली बिरादरी. (४) सुई का काम 

(साभार: सावरी http://www.dalitweb.org/?p=1113) 

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