Monday, October 1, 2012

पसमांदा क्रांति अभियान I


पहला चरण- उत्तर प्रदेश, 1 अक्टूबर 2012- 30 सितंबर 2013


भारत के राजनीतिकों ने अब तक देश के सचमुच पीड़ित अल्पसंख्यक, यानि हिंदू तथा मुस्लिमों की अनगिनत पिछड़ी जातियों, के हितों की रक्षा करने की चिंता नहीं की. उन्होंने शक्तिशालियों का अल्पसंख्यक के नाम पर हितसाधन किया है, जैसे पारसी, क्रिस्तान, मुसलमान और हिंदुओं में उच्च जाति वालों का. [डॉ. राममनोहर लोहिया, Guilty Men of India's Partition, p.47, B. R. Publishing Corporation, 2000]


अब वक्त आ गया है जब पसमांदा मुसलमानों को अपनी अलग पहचान बनानी होगी. अब तक पसमांदा मुसलमानों की पहचान अकलियत के नाम पर गुम थी. अब हम अल्पसंख्यक शब्द से घबराते हैं और यह हमें छलिया लगता है. अकलियत के नाम पर या तो कोई हमें डराता है या कोई हमारे हक-हुकूक छीनता है. असल में हम इस देश के बहुजन हैं...पसमांदा-दलित मुसलमानों और दूसरे धर्मों के दलित-पसमांदा तबकों के बीच एक दर्द का रिश्ता है. दर्द का रिश्ता सबसे बड़ा रिश्ता होता है. हम एक ही तरह की परेशानियां झेलते हैं. इस लिए हम को दूसरे धर्मों के दलित-पसमांदा से हाथ मिलाना होगा! [अली अनवर अंसारी]  

‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उस की उतनी ज़िम्मेदारी’ 

ज़ात-बिरादरी सिर्फ हिन्दुओं की बीमारी नहीं बल्कि पूरे हिन्दुस्तानी समाज की एक ठोस सच्चाई है। इस वजह से यह यहां के सारे मज़हबी अकलियत समाजों में भी नज़र आती है। जहाँ मुसलमानों में अशराफ़, अजलाफ़ और अरजाल तबके पाये जाते हैं,  वहीं सिख समाज जाट/खत्री और मज़हबी; तथा ईसाई समाज सिरियन/सारस्वत और दलित ईसाइयों में बंटा हुआ है। अगर गौर से देखा जाए तो मज़हबी पहचान की सियासत, चाहे वह बहुसंख्यकों की हो या अल्पसंख्यकों की, ऊँची जात वालों की सियासत है। सारे धार्मिंक गुरु-नेता और प्रतिष्ठानों-इदारों में आप ऊँची जात वालों का ही दबदबा पाएंगे। हिन्दू धार्मिंक राजनीति पर सवर्णों तो मुसलमानों में अशराफ तबके का गलबा है। सत्ता की गलियों में भी आमतौर पर सारे धर्मों की अगड़ी जातियां ही पहुंच पाती हैं। आइये, आगे बढ़ने से पहले भारतीय मुसलमानों की दलित/पिछड़ी बिरादरियों, जिनको राजनीति की ज़बान   में ‘पसमांदा मुसलमान’ कहा जाता है, के दर्द को बयां करती तेलुगु शायर शेख पीरन बोरेवाला की कविता के कुछ अंश पढ़ते हैं:
कसाब, पिन्जारी, लद्दाफ, दुदेकुला, घोड़ेवाला, लकड़ेवाला, चमड़ेवाला-
और मैं हूँ बोरेवाला
एक अनजान मुसलमान
मुसलमानी तवारीख में मेरी कहीं जगह नहीं
खानदानी मुसलमानों द्वारा अँधेरे में धकेला हुआ
अपने काम के चलते तिरस्कृत
किन्तु फिर भी एक मुसलमान
बोरेवाला मुसलमान!...
...चटाइयां बनाता था
इस तरह मैं बोरेवाला कहलाने लगा  

तुम मुझसे परहेज़ करते रहे
क्यों कि मेरी जाति और जीने का अंदाज़ ही ऐसा था
तुम मुझे नाकाबिल समझते रहे
भूखे पेट रह कर भी मैंने कलमा सीखा
तुम मुझसे दूरी रखते हो
फिर भी मैं सूरा रटता हूँ
तुम्हारी तरह नमाज़ रोज़ा और ज़कात करता हूँ
कभी-कभी तुम्हारे बीच होता हूँ
किन्तु तुम्हारी आँखों में फिर वही घृणा
अजीब सी बातें करते हो
ठंडापन होता है तुम्हारे व्यवहार में
और हंसी उड़ाते हो
मेरी, मेरे काम और मेरी भाषा की.

क्या मानवीय है और क्या अमानवीय?
कौन सभ्य है और कौन असभ्य?
मैं बोरेवाला वंश मैं पैदा हुआ इन चीज़ों को नहीं जानता
मैं तो इतना ही जानता हूँ
कि मैं एक मुसलमान हूँ!
इस्लाम मेरा भी धर्म है!


क्या सारे मुसलमान उपेक्षित हैं?

अब उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव, 2012 को लेकर एक सारणी पर नज़र डालते हैं [संकलन: फ्रांसीसी समाज वैज्ञानिक क्रिस्टोफ जेफरलोट के हाल के एक लेख से जो Economic & Political Weekly,   अगस्त 11, 2012 में प्रकाशित है]:


शायर शेख पीरन बोरेवाला ने जो दर्द बयां किया है उस का कारण फ्रांसीसी समाज वैज्ञानिक क्रिस्टोफ जेफरलोट ने अपने लेख में तथ्यों को जमा करके स्पष्ट कर दिया है. जिस जात और जमात को उसकी आबादी के हिसाब से सियासी भागीदारी नहीं मिलती है उसे उसी तरह के दर्द से गुजरना पड़ता है जिसकी तस्वीर शेख पीरन बोरेवाला ने अपनी छोटी सी कविता में खीची है. समय बदलता है तो सियासत भी बदले बिना नहीं रहती है. जब सियासत बदलती है तो नारा भी बदलता है. अभी तक सियासी फिजां में नारे गूंजते थे: ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी.’ यह नारा आज भी सही है. किन्तु यह नारा अपने आप में अधूरा है क्योंकि यह हमारे अधिकार की बात तो करता है किन्तु फ़र्ज़ की याद नहीं दिलाता है. अधिकार एक धारी किन्तु अधिकार के साथ जिम्मेदारी का एहसास दोधारी तलवार है. प्रेमचंद ने भी लिखा है कि जिम्मेदारी का एहसास अक्सर हमारी तंग-नज़री का सुधारक होता है. इस जिम्मेदारी का एहसास हम उन राजनीतिक दलों को कराना चाहते हैं जिनका सामाजिक आधार हमारी तरह पिछड़ी जातियों से बना है. हमारा इशारा समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की ओर है जो कुछ तबकों के लिए तो संख्या बल के अनुसार भागीदारी मांगते हैं किन्तु बात जब मुसलमानों में पसमांदा की होती है तो उनकी नीति होती है: ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी ही कम हिस्सेदारी.’!!



वर्तमान उत्तर प्रदेश विधान सभा में दलित-पिछड़ी जाति के मुसलमान (पसमांदा मुसलमान), जो सौ में पचासी (85%) हैं, उनके मात्र सात (बारह प्रतिशत), जब कि अगड़े मुसलमान, जो सौ में पन्द्रह (15%) है, उनके बावन विधायक (अठासी प्रतिशत) हैं. हम सपा और बसपा से कहना चाहते हैं कि वे मुसलमानों में पसमांदाओं के संबंध में भी ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ के सिद्धांत को लागू कर अपनी सामाजिक और राजनीतिक जिम्मेदारी का सबूत दें. हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हम किसी के खिलाफ नहीं हैं बल्कि हम मांग करते हैं कि लोकतंत्र के मूल उसूल जिसको पूरा देश अपना रहा है उसे मुसलमानों पर भी लागू किया जाये.

यह तो बात हुई उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव, 2012 की. मरहूम अशफ़ाक हुसैन अंसारी जो लोक सभा सांसद भी रहे ने जानकारी दी है कि अगर पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा की लिस्ट उठा कर देखें तो पाएंगे कि तब तक चुने गए सभी 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे; इन 400 में 340 अशराफ और केवल 60 पसमांदा तबके से थे। अगर भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी की 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफिया आबादी 2.01 फीसद (जो कि मुसलमान आबादी के 15 फीसद हैं) के आसपास होगी जबकि लोकसभा में उनकी  नुमाइंदगी 4.5 (340/7500) प्रतिशत है जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज्यादा है। वहीँ दूसरी ओर पसमांदा मुसलमानों की नुमाइंदगी, जिनकी आबादी 11.4 फीसद है, महज़ 0.8 फीसद (एक फीसद से भी कम) है. भारत में मुसलमानों की आबादी के अनुसार कुल सांसद कम से कम एक हज़ार होने चाहिए थे. इसलिए मात्र चार सौ सांसदों की मौजूदगी से लगता है कि मुसलमानों की भागीदारी मारी गई है, किन्तु जैसा कि अशफ़ाक साहब ने दिखाया है कि अगड़े मुसलमानों को तो उनकी आबादी के दुगुने से भी ज्यादा भागीदारी मिली है. ये तो पिछड़े मुसलमान हैं जिनकी हिस्सेदारी मारी गयी है.

साफ़ ज़ाहिर है कि मुस्लिम/अल्पसंख्यक सियासत से किस तबके को लाभ मिल रहा है। इसलिए सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन की रिपोर्ट की आड़ में सारी मुस्लिम कौम को पिछड़ा दिखाने और सारे मुसलमानों को आरक्षण के दायरे में लाने पर बहसें पसमांदा मुसलमानों के हलक के नीचे नहीं उतरती हैं। अगर सच्चर रिपोर्ट ने अपनी जांच में ज़ात को बुनियादी इकाई माना होता तो शिक्षा, चिकित्सा, वगैरह में भी हमें अशराफिया तबके के नुमाइंदगी के बारे में  उतने ही चौंकाने वाले आंकड़े मिलते जितना कि हमें उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व के बारे में मिले हैं। और यह बात साफ़ हो जाती कि मुसलमानों की कौन सी ज़ात/जमात हकीक़त में महरूम रही है!

भाग २

 


   


 

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