अशराफिया वर्चस्व को
चुनौती
यही पसेमंज़र है पसमांदा राजनीति और विमर्श के आगाज़ का। पसमांदा, जो कि एक फारसी शब्द है, का अर्थ होता है ‘वह जो पीछे छूट गया’। बिहार में 1998 में अली अनवर के
नेतृत्व में ‘ऑल इण्डिया पसमांदा
मुस्लिम महाज़’ के गठन और उनकी लिखी किताब ‘मसावात की जंग (2001)’ के चलते यह शब्द काफी लोकप्रिय हुआ। इसके पहले डॉ. एजाज़ अली के नेतृत्व
में ‘ऑल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा’ दलित मुसलमान शब्द चर्चा में ला
चुका था. अली अनवर की किताब ने बिहार के पसमांदा मुसलमानों की दयनीय स्थिति के
बारे में ज़ोरदार बहस को
पैदा किया और पसमांदा राजनीति की ज़मीन तैयार की। बेशक मुस्लिम समाज में कमज़ोर जातियों के आंदोलनों का इतिहास पुराना है। आजादी के पहले से ऑल इण्डिया मोमिन कान्फ्रेंस का हस्तक्षेप, खास तौर पर जिन्ना के दो राष्ट्रों के नज़रिए और बंटवारे का सीधा विरोध, काबिलेतारीफ है। मगर डॉ.
एजाज़ अली और अली अनवर के हस्तक्षेप के बाद पसमांदा
विमर्श ने एक गुणात्मक छलांग लगाई है, इस पर दो मत नहीं हो सकते हैं। आज उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल,
झारखण्ड जैसे प्रदेशों में कई पसमांदा संगठन खड़े हो रहे हैं और संघर्ष करते हुए
नज़र आ रहे हैं.
अगर जनसंख्या के हिसाब से देखें तो पिछड़े (अजलाफ़) और दलित (अरजाल) मुसलमान भारतीय मुसलमानों की कुल आबादी का कम-से-कम 85 फीसद होते हैं।
पसमांदा आंदोलन, बहुजन आंदोलन की तरह, मुसलमानों के पिछड़े
और दलित तबकों की नुमाइंदगी करता है और
उनके मुद्दों को उठाता है। यह भारत के मुसलमानों की अकलियती
सियासत को अशराफिया राजनीति मानता है और उसे चुनौती देता है। आखिर क्या है
अशराफिया राजनीति? यह मुसलमानों की अगड़ी
जातियों की राजनीति है जो सिर्फ कुछ सांकेतिक और जज्बाती मुद्दों — जैसे बाबरी
मस्जिद, उर्दू, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, पर्सनल लॉ इत्यादि — को उठाती रही है। इन मुद्दों पर गोलबंदी करके और अपने
पीछे मुसलमानों का हुजूम
दिखा के मुसलमानों की अगड़ी बिरादरियां और उनके दबदबे में चलने वाले संगठन (जमीअत-ए-उलेमा-ए-हिन्द, जमात-ए-इस्लामी, आल इण्डिया पर्सनल लॉ
बोर्ड, मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरात, पॉपुलर फ्रण्ट ऑफ इण्डिया इत्यादि) अपना हित साधते रह कर सत्ता में
अपनी जगह पक्की करते रहे हैं। इनका पूरा तर्ज़े-अमल गैर-जम्हूरी है. ये इस तरह के जज्बाती मुद्दों के ज़रिये अपना प्रतिनिधित्व तो कर लेते हैं मगर पसमांदा मुसलमानों की बलि चढ़ जाती है. बजाहिर यह पसमांदा तबके के कुछ व्यक्तियों को, जिनका ‘अशराफिकरण’ हो चुका है और जो अगड़े मुसलमानों की तहज़ीबी गुलामी
करते हैं और उस पर फख्र करते हैं, को आगे
तो रखते हैं लेकिन किसी नेकनियती से नहीं बल्कि मुस्लिम समाज के अंदरूनी जातपात के तजाद को
काबू में रखने के लिए. दिलचस्प बात है कि इन्हीं मुद्दों—बाबरी
मस्जिद, उर्दू, अलीगढ़
मुस्लिम विश्वविद्यालय, पर्सनल लॉ — पर हिंदुत्व से प्रेरित तमाम तंजीमों, जैसे
कि आर. एस. एस., विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, वगैरह की भी राजनीति फलती-फूलती है.
ज़ाहिर
है कि इस जज़्बाती राजनीति में पसमांदा आबादी, जिनमें ज़्यादातर कारीगर-दस्तकार हैं और मेहनत-मजदूरी
कर के अपना गुज़र बसर करते हैं, के मुद्दे और परेशानियों के लिए जगह कहाँ हो सकती है?
मुख्यधारा की मुस्लिम संस्कृति में क़व्वाली, ग़ज़ल, दास्तानगोई, कुरान के ऊपर अक्ली कसरत का
तो शुमार होगा लेकिन बक्खो के गीत, जुलाहों का करघा, मीरशिकार के किस्सों का ज़िक्र कैसे हो सकता है.
मुस्लिम लीडरान और मशहूर हस्तियों में अशराफ़ तबके के अबुल कलाम आज़ाद, सर
सैय्यद अहमद खान, मुहम्मद अली जिन्नाह,
अल्लामा इकबाल वगैरह का ज़िक्र तो होना
ही है मगर पसमांदा तबके के अब्दुल कैयूम अंसारी, वीर अब्दुल हमीद, मौलाना अतीकुर्रहमान आरवी मंसूरी, आसिम
बिहारी के लिए कोई गुंजाईश
कहाँ?
इस बहस के बाद हम इस नतीजे पर पहुँच सकते हैं कि जिस तरह से ‘हिंदू’
राजनीति से दलित-बहुजन को कोई फायदा नहीं, उसी तरह ‘मुस्लिम’ राजनीति
से पसमांदा मुसलमानों का कोई लाभ नहीं होने वाला है. ‘मुस्लिम एकता’ का नारा
पसमांदा मुसलमानों के लिए घाटे का सौदा है. ये राजनीतियां दोनों धर्मों की कमज़ोर
जातियों को मज़हबी पागलपन
में झोंक कर अगड़ी जातियों के मफाद को महफूज़ करने
का काम करती हैं. इस लिए धार्मिक पहचान के आधार पर एकता की जगह सभी धर्मों की
कमज़ोर जातियों की एकता पर ध्यान देना होगा. ज़ाहिर सी बात है कि इस से ‘इस्लाम खतरे में है’ और ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ का नारा कमजोर होगा. देश की पसमांदा-बहुजन आबादी को अब समझ लेना चाहिए कि
जिस ‘इस्लाम’ और ‘हिंदू’ धर्म की ओर ये नारे इशारा कर रहे हैं वे उनके नहीं. उन के इस्लाम और हिंदू
धर्म की कुछ नयी व्याख्याएं हुई
हैं और काफी अभी होनी बाक़ी है. वक्त के साथ जब ये तबके कलम पकड़ेंगे तो वह भी मुमकिन
होगा.
पसमांदा
आन्दोलन और मज़हब का सवाल
सब
से पहले हम धर्म और धार्मिक पहचान पर आधारित सियासत के बीच फर्क के
ऊपर जोर देना चाहते हैं. मज़हब की कई व्याख्याएं मुमकिन हैं. मज़हब एक दार्शनिक और
नैतिक व्यवस्था है और इस लिहाज़ से मज़हब की कई व्याख्याएं मुमकिन हैं. इस माने में मज़हब की
व्याख्याएं (तशरीह) सनातन और अपरिवर्तनशील नहीं होती. ये व्याख्याएं कभी तो
मतभेद की बुनियाद बनती हैं और कभी मतभेद की पैदावार भी होती हैं. ताकतवर
तबके धर्म की अपनी तशरीह करते हैं और शोषित (कुरान शरीफ में जिनको ‘मुस्तज-अफीन कहा गया है) तबके धर्म की दूसरी व्याख्या करते हैं.
जहाँ मजलूम तबके अपने धर्म में मसावात (बराबरी) ढूँढ़ते हैं वहीं ज़ालिम और
प्रभावशाली तबके धर्म में मसावात को ढकने की कोशिश करते हैं. इस मायने में धर्म की
प्रतिक्रियावादी समझ भी हो सकती है और प्रगतिशील भी. लातिन अमेरिका में गरीबी और
भूखमरी के खिलाफ जंग लड़ रहे ईसाइयों ने ‘बाईबिल’ और दूसरे ग्रंथों का अध्ययन करके
बताया कि ईसा मसीह को इसलिए सूली पर चढ़ाया गया था कि
उन्होंने गरीबों, बेसहारा लोगों, बेवाओं, दुखियों के हक हकूक की बात की थी. कुछ इसी
तरह की कोशिशें साउथ अफ्रीका में इस्लाम धर्म के संदर्भ में भी की गयी हैं. अपने
यहाँ दलित सिख अक्सर ही गुरु नानक की इस उक्ति को उद्धृत करते हैं कि ‘नीचों में
भी नीचतम जो मनुष्य है, नानक उनके पास जाएगा, उसे बड़े आदमियों से क्या लेना देना’.
भारत में भी ‘दलित लिब्रेशन थेओलोजी’ पर विमर्श हो रहा है. इसके बरस्क हम कह चुके हैं कि
भारत में धार्मिक पहचान पर होने वाली राजनीति प्रायः अगड़ी जातियों की राजनीति होती
है जो सत्ता पर इनकी इजारेदारी को
पुख्ता करने के लिए होती है. इनके द्वारा की गयी धर्म की व्याख्या
प्रतिक्रियावादी और अंधविश्वासों से भरी है और उसका पूरा जोर जनता को बाँट कर उन
पर शासन करना होता है.
यह
कहना नामुनासिब
नहीं होगा कि हर तबका अपने हितों, मूल्यों और समाजी हैसियत के अनुसार ही अपने धर्म की व्याख्या करेगा या
ठुकराएगा और उसी के हिसाब से अपनी ‘पहचान की सियासत’ को
तय करेगा.
भारत का दलित इतिहास और अमरीका में काले
लोगों
का इतिहास इस बात का जीता जागता सबूत
है. बाबासाहब अम्बेडकर ने हिंदू धर्म ठुकरा कर बौद्ध धर्म अपनाया था और बौद्ध धर्म
की मुख्यधारा अवधारणा की आलोचना करते हुए ‘नवायन’ बौद्ध व्याख्या की नींव रखी थी. पहचान के सिलसिले में ‘अछूत’ से ‘हरिजन’ से ‘दलित’ तक
का सफर हम जानते हैं. इसी तरह अमरीका में मार्टिन लूथर किंग और माल्कोम एक्स ने भी
धर्म की अश्वेतों के नज़रिए से व्याख्या की. वहाँ पर भी ‘नीग्रो’ से ‘ब्लैक’ से ‘अफ्रो-अमेरिकन’ तक
का सफर दिलचस्प है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है की धर्म की व्याख्या और पहचान की
सियासत की सामाजिक जड़ें भी होती हैं और आसमानों की सैर कराने वाले
मुल्ला-पंडे-पादरी अक्सर मेमने की जगह भेड़ियों के धर्म की बातें करते हैं.
जब मुसलमानों में जाति का सवाल उठता है तो कई
मुस्लिम विद्वान छटपटाहट के साथ कहते हैं कुरान में जात-पात कहाँ. पर यहाँ सवाल
कुरान का नहीं उसकी व्याख्या का है. किसी भी किताब की व्याख्या कोई लेखक करता है
और लेखक हमारे इसी समाज के होते हैं. लेखक की समाजी हैसियत
का असर उसकी व्याख्या
पर भी ज़रूर पड़ता है. जब मौलाना अशराफ अली थानवी बहिश्ती
ज़ेवर में ‘कुफु’ के सिद्धान्त / उसूल को बयान करते हुए बताते हैं कि ऊंची
बिरादरियों को नीची बिरादरियों के साथ विवाह के संबंध नहीं कायम करने चाहिए तो
मौलाना और उनके मुरीदों को यह इस्लामी उसूल
ही लग रहा था. कुरान में मसावात और बराबरी के नियम का बयान करने वाले उलेमा को इस
बात का भी ज़िक्र करना चाहिए कि मुस्लिम मुल्कों में गुलामी प्रथा का खात्मा 1500
साल के इस्लाम के अस्तित्व के बाद भी पिछली सदी में ही क्यों मुमकिन हुआ? हर व्यवहारिक
मसले के लिए हमारा पाला कुरान शरीफ से नहीं उसकी व्याख्या से पड़ता है. और अब तक यह
बात साफ़ हो चुकी है कि कुरान की व्याख्या (तशरीह और तर्जुमा) भारत में कौन सा तबका करता है. बुनियादी तौर
पर धर्म-ग्रंथों की व्याख्या का मामला भी राजनीतिक
और सामाजिक होता है. इसलिए बाअसर तबकों द्वारा किये गए
व्याख्याओं का जवाब भी राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलनों के साथ ही दिया
जायेगा.
इस के अलावा जिन लोगों को लगता है
कि मुसलमानों में जाति व्यवस्था हिंदुओं के मुकाबले कमज़ोर है तो उनको यह ध्यान
रखना चाहिए कि जाति व्यवस्था बुनियादी तौर पर ‘सामाजिक बहिष्करण’ के लिए अस्तित्व में आयी है. इस का रूप अवश्य
क्षेत्रीय और धार्मिक तौर पर भिन्न हो सकता है परन्तु इसकी मार नहीं. आखिर कितने
इलाके हैं भारत में जहाँ मनु स्मृति में वर्णित जाति व्यवस्था हूबहू मिलती
है? क्या
दक्षिण भारत में पाई जाने वाली व्यवस्था उत्तर भारत से भिन्न नहीं? क्या
पश्चिमी बंगाल और उत्तर प्रदेश में यह समान रूप से काम करती है? इसलिए
ज़रूरी सवाल है कि ये निजाम किन और कितने तबकों को कितने प्रभावशाली तरीके से सत्ता, ज्ञान
और दौलत के दायरे से बाहर रखता है. जहाँ तक रूप का
सवाल है तो यह मुसलमानों में रोटी-बेटी के रिश्तों, विभिन्न जातियों के अलग कब्रिस्तान होने, कुछ मस्जिदों में नमाज़ के दौरान कमज़ोर
जातियों को पीछे की सफों में ही खड़े होने के लिए कहने, दलित मुसलमान तबकों के साथ
कुछ इलाकों में छुआछूत के प्रचलन, अशरफिया जातियों द्वारा कुछ इलाकों में
कमज़ोर जातियों की मस्जिदों को जलाने आदि में नज़र आता है. जहाँ तक मज़हबी
तौर पर जायज़ होने का प्रश्न है तो मसूद फलाही की किताब हिन्दुस्तान
में ज़ात-पात और मुसलमान यहाँ के उलेमा और मौलवियों के जातिवादी चरित्र को साफ़
तौर पर नुमाया करती है.
पसमांदा आन्दोलन इस्लाम की अगड़े मुसलमानों द्वारा की
गयी जातिवादी व्याख्या का खंडन करता है और इस्लामी मसावात के सन्देश को फैलाने के फ़र्ज़
को गले से लगाता है. इस्लाम मुसलमानों का नहीं सारी मानवता के लिए सन्देश है. असली
मुसलमान वह नहीं जो तकदीर से मुसलमान के घर पैदा हो गया बल्कि वह है जो ज़ालिम और
मजलूम के संघर्ष में मजलूम का साथ देता है. जहाँ तक मुसलमानों की एकता का सवाल है उसे
पहले
से ही अगड़े मुसलमानों ने कई मसलक (अहल-ए-हदीस, बरेलवी, देओबंदी, वहाबी, सूफी,
शिया, इत्यादि) बना कर खतरे में डाल रखा है. अजीब बात है कि अगड़े मुसलमानों द्वारा
संचालित ये सारे मसलक वैसे तो खूब नूराकुश्ती करते हैं पर जब चुनाव का माहौल बनता
है तो सारे झगड़े ‘मुस्लिम एकता’ के नारे के सामने दम तोड़ते हुए नज़र आते हैं. आम पसमांदा
मुसलमानों को मसलकी झगड़ों में साल-दर-साल उलझा कर और चुनाव के समय मुस्लिम एकता के
नाम पर सत्ता पर अपनी भागीदारी पक्की करने की अगड़े
मुसलमानों की इस कला का जवाब नहीं. पर अब वक्त करवट ले रहा है. अब पसमांदा मुसलमानों ने अगड़े मुसलमानों के
ज़रिये की गयी मज़हब की व्याख्या की हकीक़त भी समझ ली है
और मुस्लिम एकता का मतलब भी. अब वह बार-बार अगड़े मुसलमानों के जाल में फंसने वाले नहीं हैं.
उनको अब ‘संसद’ (सरकारी इदारों) और
‘मस्जिद’ (मज़हबी इदारों) दोनों में अपनी आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी चाहिए. बात
अब यहाँ से ही शुरू होगी!
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