कॅंवल भारती: पसमान्दा मुसलमानों की कीमत पर मुस्लिम-राजनीति
(दलित-मुस्लिम और अल्पसंख्यक विमर्श)
मुस्लिम राजनीति और दलित-पिछड़े मुसलमानों की समस्याओं पर खालिद अनीस
अन्सारी का लेख ‘मुस्लिम दैट मायनारिटी पालिटिक्स लेफ्ट बिहाइंड’ (दि
हिन्दू, 17 जून 2013) सचमुच बहस-तलब है। यह लेख बताता है कि इस्लाम एक
समतावादी धर्म होते हुए भी भारत में उसकी स्थिति वंशानुगत है। अन्सारी बात
सही कहते हैं। भारत का मुस्लिम समाज एक धर्मान्तरित समाज है। यानी, भारत
में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों से बड़ी संख्या में लोगों ने
स्वार्थवश या दवाब में आकर इस्लाम अपनाया था। लेकिन इस्लाम में जाकर भी इन
लोगों ने अपनी जातीय पहचान खत्म नहीं की थी। जब सम्मान के लिये स्वैच्छा से
या बलपूर्वक दवाब में आकर दलित-पिछड़ी जातियों के लोग भी इस्लाम में गये,
तो उच्च हिन्दुओं से धर्मान्तरित मुसलमानों ने उनके साथ ऊॅंच-नीच का वही
भेदभाव जारी रखा, जो वह पहले हिन्दू फोल्ड में उनके साथ करते थे। इस प्रकार
जातिभेद से मुक्त समतावादी इस्लाम भी जातीय भेदभाव को अपनाकर विषमतावादी
इस्लाम में बदल गया। अतः, अन्सारी ठीक कहते हैं कि भारत में मौजूदा इस्लाम
वंशानुगत है। इसका दुष्प्रभाव निम्न जातियों से आये मुसलमानों पर पड़ा, जो
आज भी मुस्लिम समाज में जातीय भेदभाव के शिकार हैं। इस आधार पर भारत का
मुस्लिम समाज ‘अशराफ’ यानी अगड़ा और ‘अजलाफ’ यानी पिछड़ा इन समुदायों में
विभाजित है। एक तीसरा वर्ग ‘अरजाल’ मुसलमानों का भी है, जिसे हम
दलित-अछूतों का वर्ग कह सकते हैं। इस प्रकार, आरक्षण के लिये पसमान्दा
मुसलमानों का जो आन्दोलन चल रहा है, उसका नेतृत्व ‘अजलाफ’ मुसलमानों के
हाथों में है, उसमें ‘अरजाल’ अर्थात दलित मुसलमानों की भागीदारी नहीं नजर
आती। यही स्थिति मुस्लिम राजनीति की भी है। मुख्य धारा की मुस्लिम राजनीति
में पसमान्दा की भागीदारी नगण्य है, तो पसमान्दा की मुस्लिम राजनीति में
‘अरजाल’ एकदम अनुपस्थित है। ठीक, जिस तरह हिन्दू राजनीति में सवर्ण-वर्चस्व
है, मुस्लिम राजनीति में अशराफ-वर्चस्व है। इसलिये, अधिकार और न्याय से
वंचित दलित-पसमान्दा मुसलमानों को उनका हक तभी मिल सकता है, जब सम्पूर्ण
मुस्लिम समाज को पिछड़ा और गरीब घोषित करने की नीति और राजनीति का खण्डन
किया जाय और उसके खिलाफ व्यापक विरोध का आन्दोलन चलाया जाय। यदि ऐसा नहीं
किया गया, तो दलित-पसमान्दा की कीमत पर अशराफ मुस्लिम वर्ग ही फलता-फूलता
रहेगा, क्योंकि वह गरीब नहीं है और अशिक्षित भी नहीं है, इसलिये सारी
सरकारी सुविधाओं का उपभोग वही करेगा।
निम्न या दलित-पिछड़ा कहा जाने
वाला समाज, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, मेहनतकश कमेरे लोगों
का समाज है। उच्च वर्गों की सारी सफलता, सम्पन्नता, विलासिता और हुकूमत इसी
कमेरे वर्ग की सेवा और मेहनत पर निर्भर करती है। इसलिये उच्च वर्गों की
हमेशा यह कोशिश रहती है कि दलित-पिछड़ा वर्ग उस हद तक पढ़-लिख कर जागरूक न
हो जाये कि उनकी सत्ता को खतरा पैदा हो जाय। इसीलिये उनका न शैक्षिक विकास
हो पाता है और न आर्थिक। इसके विपरीत उच्च मुसलमान धनी भी है और शिक्षा में
भी आगे है। इस विषमता को जायज ठहराने का कार्य करते हैं, धर्मगुरु, जो
दलित-पिछड़े वर्ग को रात-दिन यही शिक्षा देते हैं कि असली दुनिया तो परलोक
की है, जहाँ तुम्हें सब-कुछ मिलने वाला है। इसलिये इस दुनिया में तुम
धन-दौलत और भौतिक तरक्की के पीछे मत भागो, क्योंकि यह दुनिया तो नष्ट हो
जाने वाली है। उन्होंने ‘सन्तोष’ को परम सुख और परम धन बताया और शिक्षा दी
कि ईश्वर को खुश करो कि वह तुम्हारी रोजी में बरकत करे। लेकिन यहाँपर रोजी
ही पर्याप्त नहीं है, वहाँपर बरकत कैसे हो सकती है? हिन्दूधर्म के गुरुओं ने
अपने फलसफे में पूर्वजन्म का सिद्धान्त भी जोड़ा, जिसके अनुसार आदमी की
गरीबी-अमीरी का कारण वह कर्म है, जो उसने पूर्वजन्म में किया था। इस आधार
पर हिन्दू धर्म-गुरुओं के अनुसार, आज के सारे गरीब पूर्वजन्म के पापी हैं और
सारे अमीर पूर्व जन्म के पुण्यात्मा हैं। मुस्लिम उलेमाओं के मुताबिक
अल्लाह जिसे चाहता है, रोजी-रोटी देता है, जिसे नहीं चाहता है, नहीं देता
है। इसलिये डा. आंबेडकर ने एक जगह बिल्कुल सही लिखा है कि केवल हिन्दूधर्म
ही नहीं, इस्लाम धर्म भी वर्ग-संघर्ष को रोकता है। कभी पसमान्दा मुसलमानों
ने सोचा कि मजहबी जलसे और खुतबात (उलेमाओं के भाषण) उनके इलाकों में ही
सबसे ज्यादा क्यों होते हैं? क्यों पसमान्दा मुस्लिम बच्चे ही इस्लामिक
मदरसों में सबसे ज्यादा पढ़ते हैं? क्यों मजारों और पीरों के पास जाने वाले
सबसे ज्यादा मुसलमान दलित-पिछड़ी जातियों से ही होते हैं? और क्यों दंगों
में भी मरने वाले सबसे ज्यादा यही दलित-पिछड़े मुसलमान होते हैं? कमोबेश
यही स्थिति उन दलित-पिछड़ी जातियों की भी है, जो हिन्दू हैं।
हिन्दु-मुस्लिम दोनों समुदायों के पूँजीपतियों से करोड़ों रुपये इन
हिन्दू-मुस्लिम धर्मगुरुओं को दान में मिलते हैं, ताकि वे दलित-पिछड़ी
जातियों को धर्म-जाल में इस कदर उलझाकर रखें कि अपने शोषण और अन्याय से
बेखबर रहें। लेकिन हिन्दू (फोल्ड के) दलितों ने इस ब्राह्मणवाद के
खिलाफ जबरदस्त आवाज उठायी। यह आवाज किसी एक कोने नहीं उठी, वरन् देश के
कोने-कोने से उठी। समान मानव-अधिकारों के लिये यह दलितों का विशाल और
व्यापक आन्दोलन था। कबीर-रैदास से लेकर जोतिबा फुले और चाॅंदगुरु से लेकर
डा. आंबेडकर तक ने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई लड़ी। परिणामतः,
हजारों वर्षों से मानवाधिकारों से वंचित दलित जातियों को अधिकार मिले। आज
वे शिक्षित होकर न केवल हर क्षेत्र में अपनी भूमिका निभा रहे हैं, बल्कि
मुख्य धारा का साहित्य भी रच रहे हैं।
सवाल यह है कि ऐसा साहस मुस्लिम
(फोल्ड के) दलितों ने क्यों नहीं किया? उनमें अशराफवाद के खिलाफ आवाज
उठाने वाला कोई आंबेडकर क्यों नहीं पैदा हुआ? आज से ठीक छह साल पहले 25
मार्च 2007 को फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लेकर वहाँ की ‘मुस्लिम घोषी एसोसियेशन’ ने एक मुस्लिम सम्मेलन किया था, जिसमें
मुझे भी बुलाया गया था। उस सम्मेलन में, जो नरेन्द्रालय में हुआ था, बिहार
के पसमांदा नेता और सांसद अली अनवर, मुस्लिम पसमांदा महाज के प्रवक्ता नदीम
देहलवी और मुस्लिम सुधारवादी महिला नेत्री शाइस्ता अम्बर भी मौजूद थीं, जो
उस वक्त तक मुस्लिम औरतों के लिये अलग मस्जिद और पर्सनल ला बनाकर चर्चा
में आ चुकी थीं। पर शायद वह भी पसमान्दा समाज से नहीं आती हैं, और कुरआन की
रोशनी में केवल औरतों के अधिकारों पर ही बात करती हैं। सम्मेलन में अली
अनवर समेत सभी मुस्लिम नेताओं ने सरकार से सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू
करने, पिछड़ी जातियों की 27 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा में से आबादी के
अनुसार मुसलमानों को आरक्षण देने और हिन्दू दलित जातियों की तरह दलित
मुस्लिम जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की माँग की थी। मुझे
अच्छी तरह याद है कि दलित मुसलमानों के प्रति उच्च तबके के मुसलमानों के
सामाजिक भेदभाव के खिलाफ उस सम्मेलन में कोई आवाज नहीं उठी थी। हालांकि इस
सच की तरफ भी अली अनवर के सिवा किसी ने इशारा नहीं किया था कि समस्त
मुसलमानों के लिये आरक्षण की माँग स्वयं मुसलमानों के हित में नहीं है,
क्योंकि इससे उनकी भागीदारी में और भी कमी आ जायगी। उस सम्मेलन में मैंने
दलित आन्दोलन को रेखांकित करते हुए कहा था कि जिस तरह दलितों ने
ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों की राजनीति से टक्कर लेने का साहस किया, उसी तरह
दलित मुसलमानों को भी ‘अशराफवाद’ और अशराफ मुस्लिम राजनीति से टक्कर लेने
का साहस करना होगा। अगर वे यह साहस नहीं करेंगे, तो उनकी स्थिति में कोई
परिवर्तन होने वाला नहीं है। मुस्लिम पसमान्दा नेता इस बात को तो स्वीकार
करते हैं कि मुस्लिम राजनीति और मुस्लिम संस्थाओं में दलित-पिछड़े तबके के
मुसलमानों के साथ भेदभाव बरता जाता है और उनकी उपेक्षा की जाती है, लेकिन
वे उन जातिवादी और कुलीनवादी (जिसे हम मनुवादी कहते हैं) मुस्लिम तत्वों की
आलोचना नहीं करना चाहते, जो उसके असली दोषी हैं। ये तत्व वही हैं, जो
उलेमा कहे जाते हैं। खालिद अनीस अन्सारी स्वयं अली अनवर के इस बयान को दर्ज
करते हैं कि वह अशराफ मुसलमानों के विरुद्ध दलित-पिछड़ी जातियों के
मुसलमानों को खड़ा नहीं कर रहे हैं, बल्कि न्याय और अधिकार हासिल करने के
लिये अपने लोगों को संगठित कर रहे हैं। लेकिन वह किस बुनियाद पर
दलित-पिछड़ी मुस्लिम जातियों को संगठित करेंगे, जबकि उन्हें यह नहीं बताया
जायगा कि उनका शत्रु कौन है? निस्सन्देह, यह एक अच्छी बात है कि अली अनवर
उन अशराफ मुसलमानों का स्वागत करते हैं, जो उनके साथ हैं। पर, क्या
उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि वे अशराफ उनके साथ क्यों हैं? अशराफ
इसलिये उनके साथ हैं, क्योंकि उनका पसमान्दा-आन्दोलन अशराफ और उलेमाओं के
खिलाफ नहीं है। पर, जब भी उन्हें लगेगा कि पसमांदा मुस्लिम नेता अशराफ और
उलेमाओं के विरोध में खड़े हो रहे हैं, तो स्थिति फिलहाल की यह है कि वे
उसी दिन उनका साथ छोड़ सकते हैं।
पसमांदा मुसलमानों को यह समझना होगा
कि ब्राह्मणवाद और अशराफवाद में कोई अन्तर नहीं है। जिस तरह ब्राह्मणवाद
हिन्दू दलितों का शत्रु है, उसी तरह अशराफवाद दलित-पसमान्दा मुसलमानों का
शत्रु है। ब्राह्मणवाद और अशराफवाद दोनों अपनी सत्ता को कायम रखना चाहते
हैं। इसलिये दोनों ही राजनीति में अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं। यहाँ यह
सवाल भी बहुत मायने रखता है कि मुसलमानों की राष्ट्रीय स्तर की कोई
राजनीतिक पार्टी क्यों नहीं है? इसका एक ही कारण है कि बिना दलित-पसमांदा
जातियों को साथ लिये कोई राष्ट्रीय स्तर की मुस्लिम पार्टी नहीं बन सकती और
मौजूदा मुस्लिम राजनीति का अशराफ-नेतृत्व यदि दलित-पसमांदा मुसलमानों को
साथ लेकर चलेगा, तो वह उनकी जमीन पर ज्यादा देर तक खड़ा नहीं रह सकेगा।
इसीलिये अशराफ मुस्लिम नेतृत्व अपना राजनीतिक हित मायावती, मुलायमसिंह यादव
और अन्य ब्राह्मणवादी पार्टियों में तो सुरक्षित समझते हैं, पर अपनी बनायी
गयी पार्टी में नहीं। अतः, यह कहना बिल्कुल सच है कि अशराफ मुस्लिम
नेतृत्व पसमांदा मुसलमानों की कीमत पर ही अपनी सत्ता और अपने स्वार्थों को
पूरा करता है।
25 जून 2013
(लेखक के फेसबुक पेज से साभार)
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