National Alliance of Pasmanda Organizations
(NAPO) / राष्ट्रीय पसमांदा गठबंधन
Inaugural Meeting, June 30 (Sunday), 2013 /
पहली बैठक
Lucknow, Uttar Pradesh /
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
भारत में सामाजिक हैसियत और भेदभाव का मुख्य आधार जाति है. यह तथ्य भारत के
सभी धार्मिक समुदायों पर लागू होता है. इस सन्दर्भ में पसमांदा बहस की शुरुआत 1990 के दशक में शुरू हुई जिसने पसमांदा (दलित और पिछड़े)
मुसलमानों के सामुदायिक संगठनों (मदरसा, आल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड आदि), राज्य
निर्मित संगठनों (उर्दू अकादमी, अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया
इस्लामिया, अल्पसंख्यक मंत्रालय, वक्फ बोर्ड आदि) और सत्ता के निकायों में
गैर-भागीदारी को मुद्दा बनाया. शिक्षा-संस्कृति, नेटवर्क बनाने की क्षमता और सामुदायिक
संस्थानों में अच्छी भागीदारी के चलते अगड़े मुसलमानों की सत्ता निकायों जैसे लोक सभा/राज्य
सभा/विधान सभा/विधान परिषद्, मंत्रीमंडल, नौकरशाही, नयायपालिका, मीडिया, एनजीओ,
अकादमी में अच्छी उपस्थिति है. वे सभी मुसलमानों की ओर से राज्य से सफलता के साथ
सौदेबाजी करते रहे हैं किन्तु इससे मिलने वाले लाभों को पसमांदा मुसलमानों के साथ
बांटने से बचते आये हैं. पसमांदा मुसलमान न केवल सत्ता प्रतिष्ठानों में भागीदारी
से वंचित हैं बल्कि अपनी जाति और इससे जुड़े पेशे और अपनी ख़ास सांस्कृतिक संवेदनाओ
के चलते रोज ही अपमानित होते हैं और गाली-गलौज और हंसी के पात्र बनाये जाते हैं.
लोकतांत्रिक राजनीति के तहत हिस्सेदारी पाने की पसमांदा की सभी कोशिशें
साम्प्रदायिक हिंसा और आतंकवाद के इर्द गिर्द सवर्ण/अशराफों द्वारा चलाये जानी
वाली बहस से पैदा होने वाली ‘भयादोहन की राजनीति’ की भेंट चढ़ जाती है. गैर
भागीदारी और अपमान की कभी न खत्म होने वाले सिलसिले के खिलाफ परिवर्तन के मुद्दे
को लेकर पसमांदा आन्दोलन का जन्म हुआ.
पसमांदा आन्दोलन के मुख्य
मुद्दे और मांगें:
a)
संवैधानिक (एससी) आदेश, 1950 के सब-सेक्शन (तीन) को खत्म करना जिससे दलित मुस्लिम
और दलित ईसाइयों को एससी लिस्ट में जगह मिल सके और धार्मिक आधार पर भारतीय संविधान
के आर्टिकल 341 के तहत उनसे भेदभाव समाप्त हो;
b)
सभी राजनीतिक दलों में टिकट वितरण में पसमांदा
मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुसार (मुसलमानों का 85%) सम्यक भागीदारी.
c)
राज्य और केन्द्र के स्तर पर ओबीसी कोटे के अन्दर
अत्यंत पिछड़े (एमबीसी) को अलग से आरक्षण मिलना जिससे हिन्दू और मुस्लिम पिछड़ी
जातियां एक साथ एक ही सूची में जगह पा सके. यह ओबीसी मुसलमानों को अलग से साढ़े चार
प्रतिशत आरक्षण देने से ज्यादा न्यायोचित और गैर-साम्प्रदायिक मांग है. हमारे पास
उन आंकड़ों का अभाव है जो यह बता सके कि बिहार में अत्यंत पिछड़ा सूची में आरक्षण
मिलने से हमें क्या लाभ मिला है. किन्तु हम अपने अनुभव से जानते हैं कि हमने काफी
कुछ हासिल किया है और हमारे ऊपर साम्प्रदायिकता (मुस्लिम तुष्टीकरण) का आरोप भी
नहीं लगा है. आज बिहार सरकार में सभी ग्रेडों में पसमांदा की अच्छी नुमाईंदगी है. इसके अलावा शिक्षण संस्थानों ख़ास कर सरकारी आईटीआई,
पोलिटेक्निक, इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में भी एमबीसी आरक्षण का लाभ पसमांदा
लड़के-लड़कियों को मिला है.
d)
कारीगर, दस्तकार, खेतिहर मजदूर और छोटे और कुटीर
उद्योगों को सब्सिडी, लोन, तकनीकी सहायता और विपणन में सरकारी सहायता मिलना.
e)
पसमांदा महिलाओं की खास समस्यायों
को लेकर प्रगतिशील नीतियों पर निर्णय और क्रियान्वयन.
f)
‘सभी मुसलमानों को आरक्षण’ के पक्ष में चलाये जाने वाले अशराफ तबकों के अभियान
का विरोध करना हमारा मुख्य मुद्दा है. पसमांदा मुसलमानों को पहले से आरक्षण
प्राप्त हो रहा है. मंडल आयोग ने अपने लिस्ट में अशराफ मुसलमानों को कोई जगह नहीं
दिया जिससे खफ़ा होकर वे यह अभियान चला रहे हैं. ‘सभी मुसलमानों को आरक्षण’ और कुछ
नहीं बल्कि अशराफों को आरक्षण की श्रेणी में लाने की कोशिश है. अशराफ मुसलमान
सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए नहीं हैं और राज्य की संस्थानों में उनकी
नुमाईंदगी भी कम नहीं है. इसलिए अशराफ तबकों को आरक्षण नहीं मिल सकता है. पसमांदा तबकों को सभी मुसलमानों को आरक्षण के
झांसे से बचना होगा और वर्तमान में हासिल आरक्षण के अधिकार को और पुख्ता बनाना
होगा जिससे दलित और पिछड़े मुसलमानों की हिस्सेदारी सुरक्षित रह सके.
हमारे इन मुद्दों और मांगों को राजनीतिक पार्टियाँ
गंभीरता से क्यों नहीं लेती है?
यह हमारे लिए सोचने का सबब है कि इन मुद्दों और मांगों को कोई राजनीतिक दल
गंभीरता से क्यों नहीं लेती है. इसका एक बड़ा कारण है हम चाहे जिस भी राजनीतिक दल
का नाम लें, उस राजनीतिक दल में अशराफ मुसलमानों का दबदबा पाते हैं. विगत कुछ
महीनों से मुस्लिम राजनीतिक और संगठन सभी मुसलमानों को आरक्षण के समर्थन में
आक्रमकता से प्रचार चला रहे हैं. किन्तु इसके बावजूद स्थापित पसमांदा नेता और संगठनों
ने इसका जोरदार जवाब नहीं दिया है. यह राजनीतिक दलों द्वारा उनको अपने में मिला
लेने या उनके थक जाने या वैचारिकता में कमी के चलते हो सकता है. अब वक़्त आ गया है
कि इसका जवाब देने के लिए पसमांदा जमात तैयारी करें नहीं तो वे न केवल राजनीति में
पीछे रह जायेंगे बल्कि अपने सामाजिक अधिकार, स्थिति और सत्ता में भागीदारी खो
बैठेंगे.
हम क्या करें?
इस संदर्भ में हमें अपना राजनीतिक एजेंडा तैयार करना होगा और संगठन पर जोर देना होगा. हालाँकि, एक नया संगठन बनाने की जगह यह ज्यादा उचित होगा कि हम सभी संगठनों को आपस में जोड़ कर एक छातानुमा संगठन
बनाएं जिसे हम National Alliance of Pasmanda Organizations
(NAPO) / राष्ट्रीय पसमांदा
गठबंधन कह सकते हैं. NAPO का उद्देश्य ख़ास कर बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में वैसे संगठनों एवं
व्यक्तियों की पहचान करना होगा जो पहले से
पसमांदा के मुद्दों और मांगों पर संघर्ष चला रहे हैं या इनके प्रति संवेदनशील हैं.
ऐसे संगठन/व्यक्ति से नापो संवाद करेगा, उन्हें अपने साथ लाने के लिए राजी करेगा
और नापो में उनके शामिल होने पर उन्हें अपने-अपने इलाकों में पसमांदा
सामाजिक-राजनीतिक एजेंडा का प्रचार करने के लिए कहेगा. जहाँ तक २०१४ के लोक सभा चुनाव का सवाल है तो
बेहद जरूरी है कि उन राजनीतिकों को (खास तौर पर अगड़े मुसलमानों को) जोरदार जवाब
दिया जाए. इस संदर्भ में नापो के सामने विचार के लिए एजेंडा रखा जा रहा है:
- सभी पसमांदा-विरोधी उम्मीदवारों का विरोध चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल के हों (जो सभी मुसलमानों को आरक्षण के दायरे में लाने की वकालत करते हैं और पसमांदा मुद्दे और मांगों पर चुप हैं या उसके खिलाफ हैं).
- बेहतर पसमांदा उम्मीदवार को मदद. जहाँ पसमांदा उम्मीदवार नहीं हों वहां उन उम्मीदवारों की मदद जो पसमांदा मांगों का समर्थन करते हैं.
- किसी भी हालत में किसी आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवार को समर्थन नहीं दिया जाए.
[हमारी गुज़ारिश है कि आप NAPO के इस एजेंडा पर अपनी राय से हमें अवगत कराएं. कमेन्ट सेक्शन पर आप अपनी प्रतिक्रिया पोस्ट कर सकते हैं. धन्यवाद.]
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