Wednesday, June 26, 2013

कॅंवल भारती: पसमान्दा मुसलमानों की कीमत पर मुस्लिम-राजनीति

(दलित-मुस्लिम और अल्पसंख्यक विमर्श)
मुस्लिम राजनीति और दलित-पिछड़े मुसलमानों की समस्याओं पर खालिद अनीस अन्सारी का लेख ‘मुस्लिम दैट मायनारिटी पालिटिक्स लेफ्ट बिहाइंड’ (दि हिन्दू, 17 जून 2013) सचमुच बहस-तलब है। यह लेख बताता है कि इस्लाम एक समतावादी धर्म होते हुए भी भारत में उसकी स्थिति वंशानुगत है। अन्सारी बात सही कहते हैं। भारत का मुस्लिम समाज एक धर्मान्तरित समाज है। यानी, भारत में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों से बड़ी संख्या में लोगों ने स्वार्थवश या दवाब में आकर इस्लाम अपनाया था। लेकिन इस्लाम में जाकर भी इन लोगों ने अपनी जातीय पहचान खत्म नहीं की थी। जब सम्मान के लिये स्वैच्छा से या बलपूर्वक दवाब में आकर दलित-पिछड़ी जातियों के लोग भी इस्लाम में गये, तो उच्च हिन्दुओं से धर्मान्तरित मुसलमानों ने उनके साथ ऊॅंच-नीच का वही भेदभाव जारी रखा, जो वह पहले हिन्दू फोल्ड में उनके साथ करते थे। इस प्रकार जातिभेद से मुक्त समतावादी इस्लाम भी जातीय भेदभाव को अपनाकर विषमतावादी इस्लाम में बदल गया। अतः, अन्सारी ठीक कहते हैं कि भारत में मौजूदा इस्लाम वंशानुगत है। इसका दुष्प्रभाव निम्न जातियों से आये मुसलमानों पर पड़ा, जो आज भी मुस्लिम समाज में जातीय भेदभाव के शिकार हैं। इस आधार पर भारत का मुस्लिम समाज ‘अशराफ’ यानी अगड़ा और ‘अजलाफ’ यानी पिछड़ा इन समुदायों में विभाजित है। एक तीसरा वर्ग ‘अरजाल’ मुसलमानों का भी है, जिसे हम दलित-अछूतों का वर्ग कह सकते हैं। इस प्रकार, आरक्षण के लिये पसमान्दा मुसलमानों का जो आन्दोलन चल रहा है, उसका नेतृत्व ‘अजलाफ’ मुसलमानों के हाथों में है, उसमें ‘अरजाल’ अर्थात दलित मुसलमानों की भागीदारी नहीं नजर आती। यही स्थिति मुस्लिम राजनीति की भी है। मुख्य धारा की मुस्लिम राजनीति में पसमान्दा की भागीदारी नगण्य है, तो पसमान्दा की मुस्लिम राजनीति में ‘अरजाल’ एकदम अनुपस्थित है। ठीक, जिस तरह हिन्दू राजनीति में सवर्ण-वर्चस्व है, मुस्लिम राजनीति में अशराफ-वर्चस्व है। इसलिये, अधिकार और न्याय से वंचित दलित-पसमान्दा मुसलमानों को उनका हक तभी मिल सकता है, जब सम्पूर्ण मुस्लिम समाज को पिछड़ा और गरीब घोषित करने की नीति और राजनीति का खण्डन किया जाय और उसके खिलाफ व्यापक विरोध का आन्दोलन चलाया जाय। यदि ऐसा नहीं किया गया, तो दलित-पसमान्दा की कीमत पर अशराफ मुस्लिम वर्ग ही फलता-फूलता रहेगा, क्योंकि वह गरीब नहीं है और अशिक्षित भी नहीं है, इसलिये सारी सरकारी सुविधाओं का उपभोग वही करेगा। 

निम्न या दलित-पिछड़ा कहा जाने वाला समाज, चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो, मेहनतकश कमेरे लोगों का समाज है। उच्च वर्गों की सारी सफलता, सम्पन्नता, विलासिता और हुकूमत इसी कमेरे वर्ग की सेवा और मेहनत पर निर्भर करती है। इसलिये उच्च वर्गों की हमेशा यह कोशिश रहती है कि दलित-पिछड़ा वर्ग उस हद तक पढ़-लिख कर जागरूक न हो जाये कि उनकी सत्ता को खतरा पैदा हो जाय। इसीलिये उनका न शैक्षिक विकास हो पाता है और न आर्थिक। इसके विपरीत उच्च मुसलमान धनी भी है और शिक्षा में भी आगे है। इस विषमता को जायज ठहराने का कार्य करते हैं, धर्मगुरु, जो दलित-पिछड़े वर्ग को रात-दिन यही शिक्षा देते हैं कि असली दुनिया तो परलोक की है, जहाँ तुम्हें सब-कुछ मिलने वाला है। इसलिये इस दुनिया में तुम धन-दौलत और भौतिक तरक्की के पीछे मत भागो, क्योंकि यह दुनिया तो नष्ट हो जाने वाली है। उन्होंने ‘सन्तोष’ को परम सुख और परम धन बताया और शिक्षा दी कि ईश्वर को खुश करो कि वह तुम्हारी रोजी में बरकत करे। लेकिन यहाँपर  रोजी ही पर्याप्त नहीं है, वहाँपर बरकत कैसे हो सकती है? हिन्दूधर्म के गुरुओं ने अपने फलसफे में पूर्वजन्म का सिद्धान्त भी जोड़ा, जिसके अनुसार आदमी की गरीबी-अमीरी का कारण वह कर्म है, जो उसने पूर्वजन्म में किया था। इस आधार पर हिन्दू धर्म-गुरुओं के अनुसार, आज के सारे गरीब पूर्वजन्म के पापी हैं और सारे अमीर पूर्व जन्म के पुण्यात्मा हैं। मुस्लिम उलेमाओं के मुताबिक अल्लाह जिसे चाहता है, रोजी-रोटी देता है, जिसे नहीं चाहता है, नहीं देता है। इसलिये डा. आंबेडकर ने एक जगह बिल्कुल सही लिखा है कि केवल हिन्दूधर्म ही नहीं, इस्लाम धर्म भी वर्ग-संघर्ष को रोकता है। कभी पसमान्दा मुसलमानों ने सोचा कि मजहबी जलसे और खुतबात (उलेमाओं के भाषण) उनके इलाकों में ही सबसे ज्यादा क्यों होते हैं? क्यों पसमान्दा मुस्लिम बच्चे ही इस्लामिक मदरसों में सबसे ज्यादा पढ़ते हैं? क्यों मजारों और पीरों के पास जाने वाले सबसे ज्यादा मुसलमान दलित-पिछड़ी जातियों से ही होते हैं? और क्यों दंगों में भी मरने वाले सबसे ज्यादा यही दलित-पिछड़े मुसलमान होते हैं? कमोबेश यही स्थिति उन दलित-पिछड़ी जातियों की भी है, जो हिन्दू हैं। हिन्दु-मुस्लिम दोनों समुदायों के पूँजीपतियों से करोड़ों रुपये इन हिन्दू-मुस्लिम धर्मगुरुओं को दान में मिलते हैं, ताकि वे दलित-पिछड़ी जातियों को धर्म-जाल में इस कदर उलझाकर रखें कि अपने शोषण और अन्याय से बेखबर रहें। लेकिन हिन्दू (फोल्ड के) दलितों ने इस ब्राह्मणवाद के खिलाफ जबरदस्त आवाज उठायी। यह आवाज किसी एक कोने नहीं उठी, वरन् देश के कोने-कोने से उठी। समान मानव-अधिकारों के लिये यह दलितों का विशाल और व्यापक आन्दोलन था। कबीर-रैदास से लेकर जोतिबा फुले और चाॅंदगुरु से लेकर डा. आंबेडकर तक ने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई लड़ी। परिणामतः, हजारों वर्षों से मानवाधिकारों से वंचित दलित जातियों को अधिकार मिले। आज वे शिक्षित होकर न केवल हर क्षेत्र में अपनी भूमिका निभा रहे हैं, बल्कि मुख्य धारा का साहित्य भी रच रहे हैं। 

सवाल यह है कि ऐसा साहस मुस्लिम (फोल्ड के) दलितों ने क्यों नहीं किया? उनमें अशराफवाद के खिलाफ आवाज उठाने वाला कोई आंबेडकर क्यों नहीं पैदा हुआ? आज से ठीक छह साल पहले 25 मार्च 2007 को फैजाबाद (उत्तर प्रदेश) में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लेकर वहाँ  की ‘मुस्लिम घोषी एसोसियेशन’ ने एक मुस्लिम सम्मेलन किया था, जिसमें मुझे भी बुलाया गया था। उस सम्मेलन में, जो नरेन्द्रालय में हुआ था, बिहार के पसमांदा नेता और सांसद अली अनवर, मुस्लिम पसमांदा महाज के प्रवक्ता नदीम देहलवी और मुस्लिम सुधारवादी महिला नेत्री शाइस्ता अम्बर भी मौजूद थीं, जो उस वक्त तक मुस्लिम औरतों के लिये अलग मस्जिद और पर्सनल ला  बनाकर चर्चा में आ चुकी थीं। पर शायद वह भी पसमान्दा समाज से नहीं आती हैं, और कुरआन की रोशनी में केवल औरतों के अधिकारों पर ही बात करती हैं। सम्मेलन में अली अनवर समेत सभी मुस्लिम नेताओं ने सरकार से सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने, पिछड़ी जातियों की 27 प्रतिशत आरक्षण की सुविधा में से आबादी के अनुसार मुसलमानों को आरक्षण देने और हिन्दू दलित जातियों की तरह दलित मुस्लिम जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने की माँग की थी। मुझे अच्छी तरह याद है कि दलित मुसलमानों के प्रति उच्च तबके के मुसलमानों के सामाजिक भेदभाव के खिलाफ उस सम्मेलन में कोई आवाज नहीं उठी थी। हालांकि इस सच की तरफ भी अली अनवर के सिवा किसी ने इशारा नहीं किया था कि समस्त मुसलमानों के लिये आरक्षण की माँग स्वयं मुसलमानों के हित में नहीं है, क्योंकि इससे उनकी भागीदारी में और भी कमी आ जायगी। उस सम्मेलन में मैंने दलित आन्दोलन को रेखांकित करते हुए कहा था कि जिस तरह दलितों ने ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणों की राजनीति से टक्कर लेने का साहस किया, उसी तरह दलित मुसलमानों को भी ‘अशराफवाद’ और अशराफ मुस्लिम राजनीति से टक्कर लेने का साहस करना होगा। अगर वे यह साहस नहीं करेंगे, तो उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन होने वाला नहीं है। मुस्लिम पसमान्दा नेता इस बात को तो स्वीकार करते हैं कि मुस्लिम राजनीति और मुस्लिम संस्थाओं में दलित-पिछड़े तबके के मुसलमानों के साथ भेदभाव बरता जाता है और उनकी उपेक्षा की जाती है, लेकिन वे उन जातिवादी और कुलीनवादी (जिसे हम मनुवादी कहते हैं) मुस्लिम तत्वों की आलोचना नहीं करना चाहते, जो उसके असली दोषी हैं। ये तत्व वही हैं, जो उलेमा कहे जाते हैं। खालिद अनीस अन्सारी स्वयं अली अनवर के इस बयान को दर्ज करते हैं कि वह अशराफ मुसलमानों के विरुद्ध दलित-पिछड़ी जातियों के मुसलमानों को खड़ा नहीं कर रहे हैं, बल्कि न्याय और अधिकार हासिल करने के लिये अपने लोगों को संगठित कर रहे हैं। लेकिन वह किस बुनियाद पर दलित-पिछड़ी मुस्लिम जातियों को संगठित करेंगे, जबकि उन्हें यह नहीं बताया जायगा कि उनका शत्रु कौन है? निस्सन्देह, यह एक अच्छी बात है कि अली अनवर उन अशराफ मुसलमानों का स्वागत करते हैं, जो उनके साथ हैं। पर, क्या उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि वे अशराफ उनके साथ क्यों हैं? अशराफ इसलिये उनके साथ हैं, क्योंकि उनका पसमान्दा-आन्दोलन अशराफ और उलेमाओं के खिलाफ नहीं है। पर, जब भी उन्हें लगेगा कि पसमांदा मुस्लिम नेता अशराफ और उलेमाओं के विरोध में खड़े हो रहे हैं, तो स्थिति फिलहाल की यह है कि वे उसी दिन उनका साथ छोड़ सकते हैं। 

पसमांदा मुसलमानों को यह समझना होगा कि ब्राह्मणवाद और अशराफवाद में कोई अन्तर नहीं है। जिस तरह ब्राह्मणवाद हिन्दू दलितों का शत्रु है, उसी तरह अशराफवाद दलित-पसमान्दा मुसलमानों का शत्रु है। ब्राह्मणवाद और अशराफवाद दोनों अपनी सत्ता को कायम रखना चाहते हैं। इसलिये दोनों ही राजनीति में अपना वर्चस्व बनाये हुए हैं। यहाँ  यह सवाल भी बहुत मायने रखता है कि मुसलमानों की राष्ट्रीय स्तर की कोई राजनीतिक पार्टी क्यों नहीं है? इसका एक ही कारण है कि बिना दलित-पसमांदा जातियों को साथ लिये कोई राष्ट्रीय स्तर की मुस्लिम पार्टी नहीं बन सकती और मौजूदा मुस्लिम राजनीति का अशराफ-नेतृत्व यदि दलित-पसमांदा मुसलमानों को साथ लेकर चलेगा, तो वह उनकी जमीन पर ज्यादा देर तक खड़ा नहीं रह सकेगा। इसीलिये अशराफ मुस्लिम नेतृत्व अपना राजनीतिक हित मायावती, मुलायमसिंह यादव और अन्य ब्राह्मणवादी पार्टियों में तो सुरक्षित समझते हैं, पर अपनी बनायी गयी पार्टी में नहीं। अतः, यह कहना बिल्कुल सच है कि अशराफ मुस्लिम नेतृत्व पसमांदा मुसलमानों की कीमत पर ही अपनी सत्ता और अपने स्वार्थों को पूरा करता है।
25 जून 2013
(लेखक के फेसबुक पेज से साभार) 

Monday, June 24, 2013

National Alliance of Pasmanda Organizations (NAPO)



Inaugural Meeting, June 30 (Sunday), 2013
Lucknow, Uttar Pradesh

Introduction

Caste is the key determinant of social status and exclusion in India and operates in all religious communities. In this context, pasmanda discourse emerged in the 1990s to address caste-based disenfranchisement of pasmanda (dalit and backward caste) muslims from community organizations (madrasas, All India Personal Law Board, etc), state organizations that claim to work from Muslims (Urdu Academies, AMU, Jamia Millia Islamia, Ministry of Minority Affairs, Waqf Boards, etc.) and power structures generally. The forward Muslims are well represented in power structures (legislative bodies, bureaucracy, judiciary, media, NGOs, academia) due to their cultural capital, networking capabilities and institutional density. They have also been able to bargain successfully with the State on behalf of all Muslims and have not really shared the benefits thus accrued with the pasmanda muslims. Apart from the marginalization of pasmanda muslims from power structures, they are also witness to a culture of humiliation where their caste titles, occupational skills and cultural sensibilities  have become terms of regular abuse and mockery. Moreover, all the efforts of the pasmanda muslims to secure an adequate share in the democratic game are offset by the emotive ‘politics of fear’ regularly generated by the religious elite in India through a discourse around communal violence and terrorism. It is to counter this unending spiral of disenfranchisement and humiliation that the transformative pasmanda project was launched.

Key Issues & Demands Raised by the Pasmanda Movement

The key issues/demands raised by the pasmanda movement are:

a.       Scrapping of Para (3) of Constitution (SCs) Order, 1950 so that dalit Muslims and dalit Christians are duly included in the SC list and they are not discriminated against on the basis of religion under Article 341 of the Indian Constitution;

b.      Adequate representation of pasmanda muslims in ticket distribution in political parties proportionate to their share of population (around 85% of Muslim population).

c.       Chalking out of a quota for Extremely Backward Castes (EBCs) within OBC quota at the Central and State levels (the Bihar formula) where the backward caste muslims could be clubbed together with similarly placed Hindu caste groups. This is a more judicious and non-communal demand than the 4.5% sub-quota for OBC-Minorities moved by the Congress Party before last Lok Sabha elections. Though we have no official data to show how many pasmanda muslims have benefitted from this separate quota for EBC in Bihar, we know from our experiences and the narratives of pasmanda government servants that we have gained substantially (without any charge of communalism) in terms of our representations in government jobs in all grades and education (particularly in terms of admission in state-run engineering, medical and other technical institutions);

d.      State support to the artisans, crafts-persons, agricultural laborers and other cottage and small-scale industries through effective subsidies, credit and loan facilities, marketing support, skill upgradation, etc.;

e.       Contestation of the ‘Total Muslim Reservations’ (TMR) campaigns launched by the ashraf classes among Muslims. The pasmanda muslims are already covered within the existing reservations policy. Hence, TMR is nothing but a ploy to bring the ashraf castes within the ambit of reservations. The exclusion of forward Muslims from the Central OBC list is the main driving force for TMR campaigns. The point is not about chalking a separate quota for all Muslims but rather the deepening of existing reservation policy so that an adequate share for dalit and backward caste Muslims is secured. The ashraf Muslims are not ‘socially and educationally’ backward and hence cannot be considered for reservations;


f.        Framing of progressive policies regarding the specific issues of pasmanda women (re-codification of Muslim personal laws, employment, education, health, political empowerment, adequate representation in religious institutions, etc.).

Why have these demands not been taken seriously by political parties?

However, these demands have not been taken seriously by any political party because of the complete domination of ashraf classes there who claim to represent all Muslims. Also, in the last few months many key Muslim leaders and organizations have militantly campaigned in support of TMR. In spite of this growing assertion around TMR there has been no befitting response from any of the established pasmanda leaders or organizations thus far. This may be either due to their cooption by political parties, burning out or lack of imagination. We think that it is high-time that a befitting political response must be chalked out by the pasmanda muslims otherwise they will lose out politically and be deprived of their social rights, status and adequate share in power.

Where do we go from here?

In this context we need to chalk out a clear political agenda and organizational structure. We feel that rather than creating another organization we should form an umbrella organization provisionally captioned National Alliance of Pasmanda Organizations (NAPO). The purpose of NAPO could be to identify organizations and individuals in Uttar Pradesh, Bihar and Maharashtra that are already working on pasmanda issues or are sensitive to the pasmanda agenda. The individuals/organizations thus identified could be roped in by NAPO and be made responsible for the propagation of its political agenda in their respective areas. As far as the 2014 Lok Sabha Elections are concerned it is important that a befitting reply is given to the anti-pasmanda politicians (largely forward Muslims). In this context, NAPO may consider the following agenda:

  • Boycott of all anti-pasmanda candidates from any political party (all those who are supporting TMR campaigns and are against or silent on pasmanda demands).
  • Support to the better pasmanda candidates. In case of the unavailability of pasmanda candidates in any constituency, support should be extended to the desirable candidates from other groups that are supportive of our demands.
  •  In any case, no support should be extended to any candidate with a criminal reputation.  


[You are welcome to post your response in the comments section. Thanks.]   

राष्ट्रीय पसमांदा गठबंधन / National Alliance of Pasmanda Organizations (NAPO)

National Alliance of Pasmanda Organizations (NAPO) / राष्ट्रीय पसमांदा गठबंधन
Inaugural Meeting, June 30 (Sunday), 2013 / पहली बैठक
Lucknow, Uttar Pradesh / लखनऊ, उत्तर प्रदेश

भारत में सामाजिक हैसियत और भेदभाव का मुख्य आधार जाति है. यह तथ्य भारत के सभी धार्मिक समुदायों पर लागू होता है. इस सन्दर्भ में पसमांदा बहस की शुरुआत 1990 के दशक में शुरू हुई जिसने पसमांदा (दलित और पिछड़े) मुसलमानों के सामुदायिक संगठनों (मदरसा, आल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड आदि), राज्य निर्मित संगठनों (उर्दू अकादमी, अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया, अल्पसंख्यक मंत्रालय, वक्फ बोर्ड आदि) और सत्ता के निकायों में गैर-भागीदारी को मुद्दा बनाया. शिक्षा-संस्कृति, नेटवर्क बनाने की क्षमता और सामुदायिक संस्थानों में अच्छी भागीदारी के चलते अगड़े मुसलमानों की सत्ता निकायों जैसे लोक सभा/राज्य सभा/विधान सभा/विधान परिषद्, मंत्रीमंडल, नौकरशाही, नयायपालिका, मीडिया, एनजीओ, अकादमी में अच्छी उपस्थिति है. वे सभी मुसलमानों की ओर से राज्य से सफलता के साथ सौदेबाजी करते रहे हैं किन्तु इससे मिलने वाले लाभों को पसमांदा मुसलमानों के साथ बांटने से बचते आये हैं. पसमांदा मुसलमान न केवल सत्ता प्रतिष्ठानों में भागीदारी से वंचित हैं बल्कि अपनी जाति और इससे जुड़े पेशे और अपनी ख़ास सांस्कृतिक संवेदनाओ के चलते रोज ही अपमानित होते हैं और गाली-गलौज और हंसी के पात्र बनाये जाते हैं. लोकतांत्रिक राजनीति के तहत हिस्सेदारी पाने की पसमांदा की सभी कोशिशें साम्प्रदायिक हिंसा और आतंकवाद के इर्द गिर्द सवर्ण/अशराफों द्वारा चलाये जानी वाली बहस से पैदा होने वाली ‘भयादोहन की राजनीति’ की भेंट चढ़ जाती है. गैर भागीदारी और अपमान की कभी न खत्म होने वाले सिलसिले के खिलाफ परिवर्तन के मुद्दे को लेकर पसमांदा आन्दोलन का जन्म हुआ.   

पसमांदा आन्दोलन के मुख्य मुद्दे और मांगें:

a)           संवैधानिक (एससी) आदेश, 1950 के सब-सेक्शन (तीन) को खत्म करना जिससे दलित मुस्लिम और दलित ईसाइयों को एससी लिस्ट में जगह मिल सके और धार्मिक आधार पर भारतीय संविधान के आर्टिकल 341 के तहत उनसे भेदभाव समाप्त हो;    

b)          सभी राजनीतिक दलों में टिकट वितरण में पसमांदा मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुसार (मुसलमानों का 85%) सम्यक भागीदारी. 

c)           राज्य और केन्द्र के स्तर पर ओबीसी कोटे के अन्दर अत्यंत पिछड़े (एमबीसी) को अलग से आरक्षण मिलना जिससे हिन्दू और मुस्लिम पिछड़ी जातियां एक साथ एक ही सूची में जगह पा सके. यह ओबीसी मुसलमानों को अलग से साढ़े चार प्रतिशत आरक्षण देने से ज्यादा न्यायोचित और गैर-साम्प्रदायिक मांग है. हमारे पास उन आंकड़ों का अभाव है जो यह बता सके कि बिहार में अत्यंत पिछड़ा सूची में आरक्षण मिलने से हमें क्या लाभ मिला है. किन्तु हम अपने अनुभव से जानते हैं कि हमने काफी कुछ हासिल किया है और हमारे ऊपर साम्प्रदायिकता (मुस्लिम तुष्टीकरण) का आरोप भी नहीं लगा है. आज बिहार सरकार में सभी ग्रेडों में पसमांदा की अच्छी नुमाईंदगी है. इसके अलावा शिक्षण संस्थानों ख़ास कर सरकारी आईटीआई, पोलिटेक्निक, इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज में भी एमबीसी आरक्षण का लाभ पसमांदा लड़के-लड़कियों को मिला है.

  
d)          कारीगर, दस्तकार, खेतिहर मजदूर और छोटे और कुटीर उद्योगों को सब्सिडी, लोन, तकनीकी सहायता और विपणन में सरकारी सहायता मिलना. 

e)           पसमांदा महिलाओं की खास समस्यायों को लेकर प्रगतिशील नीतियों पर निर्णय और क्रियान्वयन.

f)           ‘सभी मुसलमानों को आरक्षण’ के पक्ष में चलाये जाने वाले अशराफ तबकों के अभियान का विरोध करना हमारा मुख्य मुद्दा है. पसमांदा मुसलमानों को पहले से आरक्षण प्राप्त हो रहा है. मंडल आयोग ने अपने लिस्ट में अशराफ मुसलमानों को कोई जगह नहीं दिया जिससे खफ़ा होकर वे यह अभियान चला रहे हैं. ‘सभी मुसलमानों को आरक्षण’ और कुछ नहीं बल्कि अशराफों को आरक्षण की श्रेणी में लाने की कोशिश है. अशराफ मुसलमान सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए नहीं हैं और राज्य की संस्थानों में उनकी नुमाईंदगी भी कम नहीं है. इसलिए अशराफ तबकों को आरक्षण नहीं मिल सकता है.  पसमांदा तबकों को सभी मुसलमानों को आरक्षण के झांसे से बचना होगा और वर्तमान में हासिल आरक्षण के अधिकार को और पुख्ता बनाना होगा जिससे दलित और पिछड़े मुसलमानों की हिस्सेदारी सुरक्षित रह सके. 


हमारे इन मुद्दों और मांगों को राजनीतिक पार्टियाँ गंभीरता से क्यों नहीं लेती है?

यह हमारे लिए सोचने का सबब है कि इन मुद्दों और मांगों को कोई राजनीतिक दल गंभीरता से क्यों नहीं लेती है. इसका एक बड़ा कारण है हम चाहे जिस भी राजनीतिक दल का नाम लें, उस राजनीतिक दल में अशराफ मुसलमानों का दबदबा पाते हैं. विगत कुछ महीनों से मुस्लिम राजनीतिक और संगठन सभी मुसलमानों को आरक्षण के समर्थन में आक्रमकता से प्रचार चला रहे हैं. किन्तु इसके बावजूद स्थापित पसमांदा नेता और संगठनों ने इसका जोरदार जवाब नहीं दिया है. यह राजनीतिक दलों द्वारा उनको अपने में मिला लेने या उनके थक जाने या वैचारिकता में कमी के चलते हो सकता है. अब वक़्त आ गया है कि इसका जवाब देने के लिए पसमांदा जमात तैयारी करें नहीं तो वे न केवल राजनीति में पीछे रह जायेंगे बल्कि अपने सामाजिक अधिकार, स्थिति और सत्ता में भागीदारी खो बैठेंगे.

हम क्या करें?

इस संदर्भ में हमें अपना राजनीतिक एजेंडा तैयार करना होगा और संगठन पर जोर देना होगा. हालाँकि, एक नया संगठन बनाने की जगह यह ज्यादा उचित होगा कि हम  सभी संगठनों को आपस में जोड़ कर एक छातानुमा संगठन बनाएं जिसे हम National Alliance of Pasmanda Organizations (NAPO) / राष्ट्रीय पसमांदा गठबंधन कह सकते हैं. NAPO का उद्देश्य ख़ास कर बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में वैसे संगठनों एवं व्यक्तियों  की पहचान करना होगा जो पहले से पसमांदा के मुद्दों और मांगों पर संघर्ष चला रहे हैं या इनके प्रति संवेदनशील हैं. ऐसे संगठन/व्यक्ति से नापो संवाद करेगा, उन्हें अपने साथ लाने के लिए राजी करेगा और नापो में उनके शामिल होने पर उन्हें अपने-अपने इलाकों में पसमांदा सामाजिक-राजनीतिक एजेंडा का प्रचार करने के लिए कहेगा. जहाँ तक २०१४ के लोक सभा चुनाव का सवाल है तो बेहद जरूरी है कि उन राजनीतिकों को (खास तौर पर अगड़े मुसलमानों को) जोरदार जवाब दिया जाए. इस संदर्भ में नापो के सामने विचार के लिए एजेंडा रखा जा रहा है: 
  
  • सभी पसमांदा-विरोधी उम्मीदवारों का विरोध चाहे वे किसी भी राजनीतिक दल के हों (जो सभी मुसलमानों को आरक्षण के दायरे में लाने की वकालत करते हैं और पसमांदा मुद्दे और मांगों पर चुप हैं या उसके खिलाफ हैं). 
  • बेहतर पसमांदा उम्मीदवार को मदद. जहाँ पसमांदा उम्मीदवार नहीं हों वहां उन उम्मीदवारों की मदद जो पसमांदा मांगों का समर्थन करते हैं.
  •  किसी भी हालत में किसी आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवार को समर्थन नहीं दिया जाए.



[हमारी गुज़ारिश है कि आप NAPO के इस एजेंडा पर अपनी राय से हमें अवगत कराएं. कमेन्ट सेक्शन पर आप अपनी प्रतिक्रिया पोस्ट कर सकते हैं. धन्यवाद.] 

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