Monday, October 1, 2012

पसमांदा क्रांति अभियान III




कौमी दंगों से निजात कैसे मिले?



पसमांदा विमर्श की एक बड़ी कामयाबी यह रही है कि उसने मुसलमानों की एकांगी तस्वीर को तोड़ दिया है,  उसी तरह जिस तरह दलित-बहुजन आंदोलन ने हिन्दुओं की इकहरी पहचान में सेंध लगाई थी. अली अनवर ने कुछ साल पहले कहा था-हम शुद्दर हैं..शुद्दर. भारत के मूलनिवासी हैं, बाद में मुसलमान हैं!  एक तरफ तो इस हकीक़त की ओर ध्यान दिला  के उन्होंने पसमांदा तबकों का उन अशराफ मुसलमानों से , जो अपने आप को अरब या ईरान से जोड़ते हैं , फर्क बताया ,  वहीं दूसरी ओर धर्म की एकता की जगह सारे धर्मों की कमज़ोर जातियों की बहुजन एकता की सम्भावनाओं की ओर भी इशारा किया. ज़ाहिर है, सारे धर्मों की कमज़ोर जातियों की एकता साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक विमर्श को कमज़ोर बनाएगा. इतना ही नहीं यह सेक्युलरिज्म की नयी व्याख्या भी करेगा. अभी तक का सेक्युलरिज्म हिंदू-मुसलमान की एकता (धार्मिक एकता) की बात कहता रहा है किन्तु इससे भारत की साम्प्रदायिक समस्या का समाधान आजतक नहीं हो पाया है. सेक्युलरिज्म की नयी व्याख्या जाति/वर्ग की एकता पर आधारित होगा जहाँ धार्मिक अल्पसंख्यकवाद का कोई स्थान नहीं बचेगा. एक ओर हिंदू-मुस्लिम दलित-पिछड़ों तो दूसरी ओर हिंदू-मुस्लिम अगड़ों की सियासी एकता--भारत में एक नई राजनीति का आगाज़ करेगा। पसमांदा आंदोलन इस ठोस हकीकत पर टिका हुआ है कि जाति हिन्दुस्तान की बुनियादी पहचान है और यहाँ की समाजी बनावट की बुनियादी इकाई है. इसलिए हमारी सामाजिक-राजनीतिक विमर्श जाति को केन्द्र में रखकर ही किया जा सकता है. हम मानते हैं कि किसी एक जाति की इतनी संख्या नहीं है कि वह अपने आप को बहुसंख्यक कह सके. जब कोई बहुसंख्यक ही नहीं तो फिर अल्पसंख्यक का कोई मायने नहीं रह जाता. पसमांदा आंदोलन जाति को अपनी व्याख्या का मूल तत्व बनाकर इस देश से हिंदू-मुसलमान झगड़े को खत्म कर देना चाहता है. मुस्लिम राजनीति मुसलमानों और दलितों या मुसलमानों और पिछड़ों के चुनावी समीकरण की बात करती है. इसके उलट, पसमांदा राजनीति दलितों और दलितों, पिछड़ों और पिछड़ों और अंततः दलितों-पिछड़ों चाहे वे हिंदू हो या मुसलमान की सामाजिक और सियासी एकता की बात करती है. उत्तर प्रदेश और बिहार में आजकलदलित-पिछड़ा एक समान, हिन्दू हो या मुसलमानका नारा चल निकला है.


चाहे वह कौमी दंगों का सवाल हो या अभी हाल में आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को सरकारी मशीनरी द्वारा सताए जाने का, इन दोनों में अक्सरियत पसमांदा तबकों की ही होती है. कौमी दंगों की लपटें अक्सर गरीब बस्तियों को झुलसाती हैं जिसमें पसमांदा मुसलमानों की तादाद ज्यादा होती है. अगर हाल की ही कुछ हिंसात्मक घटनाओं को देखें, जैसे फारबिसगंज (बिहार), आस्थान (उत्तर प्रदेश) या गोपालगढ़ (राजस्थान), तो साफ़ हो जायेगा कि इन घटनाओं की ज़द में पसमांदा मुसलमान ही आते हैं. बॉबी कुन्हु, जिनकी आतंकवाद और मुस्लिम नौजवान जैसे विषय पर किताब जल्द ही प्रकाशित होने वाली है, ने अपने शोध के दौरान कुल 300 मुस्लिम नौजवान, जो कि आतंकवाद के इलज़ाम में उठाए गए हैं, से बात की है. चूँकि अब तक करीब 900 के आसपास मुस्लिम नौजवान उठाए गए हैं इसलिए 300, यानि कुल तादाद का एक तिहाई, एक अच्छा सैम्पल है. उनके हिसाब से इन 300 नौजवानों में से शायद ही कोई अशराफ मुसलमान रहा हो. यहाँ पर यह बात हम साफ़ कर देना चाहते हैं कि यह मुमकिन है कि जिहादी विमर्श के चपेट में आकर कुछ मुसलमान गुमराह हो सकते हैं और आतंकवादी गतिविधियों में शामिल भी हो सकते हैं. पर यहाँ पर हम सिर्फ ये कहना चाह रहे हैं कि मुसलमानों में जो लोग कौमी दंगों और प्रशासनिक ज़ुल्म का शिकार बनते हैं उनमें अक्सरियत दबे कुचले पसमांदा तबकों की होती है.       

हमारा मानना है कि जबकि कौमी दंगे भारत के सवर्ण-पूंजीवादी तंत्र और उस से उपजे अंतर्विरोधों को दबाने का सदाबहार  देसी आला है, वहीँ ‘आतंकवाद’ और ‘इस्लामोफोबिया’ का विमर्श (और उस से जुड़ी घटनाएँ) साफ़ तौर पर एक अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्यवादी साजिश है जो सोवियत रूस और साम्यवादी कैंप के खात्मे के बाद इस्लाम को एक सामूहिक दुश्मन के रूप में प्रस्तुत करने और अपने हितों को सुरक्षित और विस्तारित करने की सामरिक ज़रूरत के तहत अमल में लायी जा रही है. 1990 के बाद से ही भूमंडलीकरण के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय श्वेत-साम्राज्यवादी तंत्र और देसी सवर्ण-पूंजीवादी तंत्र के बीच गठजोड़ की कवायद शुरू हो गयी थी. यह लंबा विषय है और यहाँ इस पर गहराई से चर्चा करना मुमकिन नहीं है. हम केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि सवाल चाहे दंगों का हो या आतंकवाद के नाम पर मजलूम बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों के उत्पीड़न का, जब अक्सरियत इन में पसमांदा की होती है तो राज्य मुख्यतः अगड़े मुसलमानों और उनके द्वारा संचालित संगठनों से ही क्यों वार्ता करता है? सांप्रदायिक दंगे एक सत्य है. आतंकवाद के नाम पर प्रताडना भी एक कड़वा सच  है. पर इन दोनों घटनाओं और विमर्श के ज़रिये अगर मुसलमानों के अशराफ तबकों और प्रतिक्रियावादी ताक़तों को बल मिले और पीड़ित पसमांदा तबकों की आवाज़ का गला घोंट दिया जाये तो मामला गौरतलब बन जाता है. इसी एहसास का इज़हार याकूब कवि ने अपनी शायरी ‘अव्वल कलमा’ में कुछ इस तरह व्यक्त किया है:

आपको यकीन तो न आए शायद
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं ज़िक्र ही नहीं
अभी भी, एक बार फिर से, उनकी दसवीं या ग्यारहवीं पीढ़ी
जिन्होंने खोई थी अपनी शानो-शौकत
बात कर रही है हम सब के नाम पर
क्या इसी को कहते हैं अनुभव की लूट?
 
अंत में



हमने अपनी बात ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी जिम्मेदारी’ से शुरू की थी. कम संख्या वाले अशराफ़ अपनी जिम्मेदारी में नाकाम हो गए हैं. हमने उनको अपना रहनुमा माना किन्तु उन्होंने न तो हमको दंगे फसाद से बचाया और न ही गरीबी-ग़ुरबत और जाहिलियत से मुक्ति दिलाई. इस जिम्मेदारी का एहसास हमको भी करना होगा. आखिर मुसलमानों में हमारी संख्या सबसे भारी है. हमको आगे बढ़कर सियासत की बागडोर थामनी होगी. डॉ. भीम राव अम्बेडकर की तर्ज़ पर पसमांदा आंदोलन ने ऐलान कर दिया है कि मुसलमानों के अंदर जाति का सवाल सामाजिक सुधारों के साथ-साथ राजनीतिक आंदोलन के ज़रिये भी हल होगा। पसमांदा विमर्श जम्हूरियत, सेक्युलरिज्म, समाजवाद, सामाजिक न्याय और रोजी-रोटी के सवाल को मुस्लिम राजनीति का केन्द्रीय प्रश्न बनाने की घोषणा करता है.

पसमांदा क्रांति अभियान का मकसद पसमांदा विमर्श के मुद्दे पर जनमत तैयार करना है. हम आप का आह्वान करते हैं कि आप पसमांदा क्रांति के जज्बे को अपने भीतर उतारें और इस कारवां का हिस्सा बनें. शायर शेख पीरन बोरेवाला की शायरी की अंतिम पंक्ति को हम ऊपर से यहाँ ले आये हैं:
मुझे बोरेवाला कहो
या कहो गिरिजन मुस्लिम
या कहो दलित मुस्लिम
या कहो कोई भी मुस्लिम
किन्तु एक बात साफ़ है...
यदि मैं बोरा बुनने का काम न करूँ तो
तुम्हारा जनाज़ा ही नहीं निकलेगा !!! 

हिंदुओं के अत्याचार और मुल्लाओं के भेद-भाव से
मैं अभी ही तो जागा हूँ. 
मेरी अपनी ही निष्क्रियता और उदासीनता
न जाने कब से जलाती रही है मुझे 
किन्तु अब मैं बजाने लगा हूँ बोरेवालों का नगाड़ा !!!
शेख पीरन ने जिस नगाड़े की चर्चा की है वह यही पसमांदा आंदोलन है.

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