Friday, June 17, 2011

पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ. अयूब के नाम एक खुला पत्र

Dr. Ayub, Peace Party
सब से पहले तो मैं 14 जून 2011 को आप पर हुए जानलेवा हमले की घोर निंदा और आप की पार्टी की तरफ से उठाई गयी सीबीआई जांच की मांग का पुरजोर समर्थन करता हूँ. इस के साथ ही मैं आपकी सेहत को लेकर फिक्रमंद हूँ और उम्मीद करता हूँ की आप जल्द से जल्द बेहतर हो जायें और सक्रिय राजनीति में वापस लौटें. बहुत दिनों से कुछ बातें आपके समक्ष रखना चाह रहा था पर कई कारणों से यह मुमकिन नहीं हो पाया. अब लगता है की इन बातों को आपसे शेयर करने का उचित समय आ गया है और ज्यादा विलम्ब ठीक नहीं है. 

चूँकि आप राजनितिक अखाड़े के योद्धा हैं इस लिए इस पत्र में मैं  अपनी बात राजनीति तक ही सीमित रखूंगा. ज़ाहिर सी बात है की राजनीति कुछ महत्वपूर्ण मसलों का हल ज़रूर है परन्तु यह सारी समस्याओं का हल नहीं हो सकती है. इस लिए सांस्कृतिक, सामाजिक और धर्म के मामलों पर आपसे कभी और बहस होगी. इस संदर्भ में मुझे लगता है की लोकतंत्र में आस्था रखने वाली कोई भी ईमानदार राजनीति मुख्यतः तीन कार्य कर सकती है: पहला, कमज़ोर समूहों और पहचानों की सत्ता में समानुपातिक नुमयांदिगी; दूसरा, लोकतंत्र और प्रतिनिधित्व की प्रक्रियाओं को और गहरा और पैना बनाना; और, तीसरा, सरकारी पोलिसी में गरीब तबकों (चाहे वह किसी भी जात और धर्मं के हों) के हितों को आगे बढ़ाना और उन की सुरक्षा करना. क्योंकिं तीसरे कार्य में ज्यादा भ्रम की गुंजाईश नहीं है इस लिए मैं पहले और दूसरे कार्य पर कुछ चर्चा करना चाहूँगा.

जैसा कि हम सब जानते हैं स्वतन्त्र भारत के संविधान ने सामाजिक न्याय (आरक्षण) और अल्पसंख्यक अधिकारों के सूत्रीकरण के साथ तमाम वंचित पहचानों के लिए इस लोकतंत्र में अपनी न्यायोचित जगह बनाने के लिए रास्ता हमवार किया था. यह ताकतवर तबकों की तरफ से कोई भीख नहीं थी बल्कि जोतिबा फुले, बाबासाहेब अम्बेडकर, ई. वी. पेरियार और अब्दुल कैय्यूम अंसारी जैसे लोगों के संघर्षों का नतीजा था. अभी हाल में मंडल राजनीती के आगाज़ और कांशीराम (बामसेफ) के प्रयोग ने जम्हूरियत को और गहरा बनाया और दबी कुचली पहचानों को नया विश्वास और उम्मीद दी. इन सब कारणों से जम्हूरियत का पहला चक्र लगभग अपने निर्णायक काल में है और आखिरी सांसें गिन रहा है. इस पहले चक्र में दलित, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के अंदर की कुछ जातियों को सियासत में भागीदारी करने का मौक़ा मिला. लेकिन आज आज़ादी के पचास से ज्यादा वर्षों के बाद संविधान में सामाजिक न्याय और अल्पसंख्यक अधिकारों को लेकर जो 1947 में आम सहमति बनी थी, और उस समय न्यायोचित भी थी, उसमें दरार पड़ती नज़र आ रही है. दलितों के अंदर आन्ध्रप्रदेश में माला-मडिगा का अंतर्वोरोध या बिहार में महादलित अस्मिता का उभार, ओबीसी के अंदर अति-पिछड़ा राजनीती की सुगबुगाहट, और धार्मिक अल्पसंख्यकों के अंदर से पसमांदा-दलित मुसलमानों, दलित ईसाई और मज़हबी सिखों का आन्दोलन इस का जीता-जागता प्रमाण हैं. इस लिए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हमारे समय में कोई भी राजनितिक हस्तक्षेप जो इन महत्वपूर्ण गतिविधियों से अनजान हो उसका भविष्य बहुत रोशन नहीं हो सकता है. इस बिंदु पर आगे भी हम चर्चा करेंगे.

दूसरा मामला जम्हूरियत और प्रतिनिधित्व की प्रक्रियाओं को और गहरा और पैना बनाने का है. हाल ही के दिनों में उठे बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार-विरोधी लोकप्रिय आन्दोलनों ने इस की ज़रूरत की तरफ इशारा किया है. हालांकि हम अन्ना ओर रामदेव के आन्दोलनों को किसी भी तरह से भारत की हाशिए में धकेली हुई जनता की नुमयांदगी करते हुए नहीं पाते हैं और उनको शासक वर्ग का हथियार ही मानते हैं, फिर भी उनके आंदोलन जनता को इस ही लिए आकर्षित कर पा रहे हैं क्योंकि वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कुछ खामियां हैं. खास तौर पर नेताओं और जनता के बीच जो गहरी खाई है उसको हमारी व्यवस्था नहीं पाट पा रही है. इस संदर्भ में अब निर्वाचकीय निज़ामपर भी बात करने की ज़रूरत है. भारत में अभी रायज फर्स्ट-पास्ट-दी-पोस्ट सिस्टममें वह पार्टी जो सब से अधिक सीट लाती है सरकार बनाती है. ऐसे में यह मुमकिन है की जिसको 25% वोट मिले हों उसे 140 सीटें मिल जाए और जिसे 22% वोट मिले हों उसे केवल 30 ही सीट मिलें. इस तरह के नतीजे जनादेश की सही नुमाइंदगी नहीं करते. भारत में कुछ संगठन अब प्रोपोर्शनल इलेक्टोरल सिस्टम् (समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली) की वकालत कर रहे हैं जहाँ पर किसी भी पार्टी की सीटों की तादाद वोट-शेयर पर निर्भर करेगी. यह ज़्यादा मुंसिफाना निज़ाम है और इस पर सोचने की ज़रूरत है. [अधिक जानकारी के लिए देखें: http://www.ceri.in/]. दूसरा, अपने नुमाइंदों को वापस बुलाने का अधिकार (Right to Recall) पर भी काम करने की ज़रूरत अब महसूस हो रही है. एक बार प्रतिनिधि चुन लिए जाते हैं तो पांच साल के लिए निश्चिन्त हो जाते हैं और जनता से उनका रिश्ता कमज़ोर पड़ने लगता है. इस अधिकार के आने के बाद निर्वाचित प्रतिनिधियों को जनता के हितों के प्रति सक्रिय रहना पड़ेगा क्योंकि उनको पता होगा की अगर उनहोंने जनता के लिए इमानदारी से काम नहीं किया तो उनको वापस बुलाया जा सकता है. तीसरा, सूचना का अधिकार एक क्रन्तिकारी कदम है और इसका दायरा बढाने की ज़रूरत है. इसके अलावह और भी बहुत सारे कदमों पर विचार-विमर्श  किया जा सकता है जिस से जम्हूरियत गहरी हो और राजनीति सिर्फ एक धंधा न बन कर रह जाये बल्कि जनता के हितों की सही नुमयांदगी कर सके. ज़ाहिर सी बात है की इन मुद्दों को न तो वर्तमान नेता उठाएंगे और न ही अन्ना इस पर आमरण अनशन करेंगे. वर्तमान नेताओं और तथकथित सिविल सोसाइटी के बीच चल रही नूराकुश्ती के पीछे एक मकसद इस तरह के कदमों को विमर्ष के बाहर रखना भी है और किसी तरह जनता के आक्रोश को भटका कर उलटे-सीधे आंदोलनों में स्वाहा कर देना ही है. कुल मिलकर लोकपाल बिल के ऊपर इस सारे दंगल का नतीजा जनता के हित के बरस्क ताकतवर तबकों के हित ही में अंततः जायेगा.

इस भूमिका के बाद अब आप से फिर मुखातिब होते हैं. ‘पीस पार्टी’, जिस के आप अध्यक्ष भी हैं, मुस्लमान-ओबीसी-दलित फोर्मूले पर काम कर रही है. आप की पार्टी का यह भी मानना है की वह दबे-कुचले तबकों की आवाज़ है. क्योंकि, सभी पार्टियां यह ही मानती हैं की वह दबे-कुचलों की आवाज़ हैं इस लिए आपके राजनितिक समीकरण पर ही बात करते हैं. पहले मुसलमानों की बात करते हैं. अगर पहली से लेकर चौदहवीं लोक सभा की लिस्ट उठा कर देखें तो पाएंगे कि तब तक चुने गए सभी 7500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे. और इन 400 मुसलमान प्रतिनिधियों में केवल 60 पसमांदा तबके से थे. अगर भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी की 13.4% (2001 सेंसस) है तो अशरफिया आबादी 2.01% (जो कि मुसलमान आबादी के 15% हैं) के आसपास होगी. हालांकि, लोक सभा में उनका प्रतिनिधित्व 4.5% है जो कि उनकी आबादी से सिर्फ ज्यादा नहीं बल्कि दोगुना है. साफ़ ज़ाहिर है कि मुस्लिम/अल्पसंख्यक सियासत से किस तबके को लाभ मिल रहा. इसी तरह ओबीसी तबकों के करीब 200 मेम्बर, जो की सिर्फ दस-बारह जातियों से आते हैं, अब लोक सभा में पहुँच चुके हैं. यदि दलित तबके को देखें तो उनको चुनाव के संदर्भ में जो आरक्षण मिला हुआ है उसका कुछ ही जातियों ने फायदा उठाया है. ऐसे में आपका मुस्लमान-ओबीसी-दलित समीकरण कितना जायज़ है? क्या अब समय नहीं आ गया है जब पसमांदा-महादलित-अतिपिछड़ा समीकरण पर गंभीरता से सोचना और काम करना चाहिए? उत्तर प्रदेश के आगामी 2012 के चुनाव के संदर्भ में यह बात और भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है जहाँ पर यह समीकरण करीब 50% आबादी को समेटता है. यह हैरत की बात है की जब जनतंत्र का पहिया आगे बढ़ रहा है और नयी राजनितिक संभावनाएं नज़र आ रही हैं तब आप अपनी राजनीती को ‘मुस्लिम पार्टी’ के पुराने और घिसे-पिटे फोर्मुले के तहत प्रस्तुत कर रहे हैं. यह ड्रामा जमात-ऐ-इस्लामी की वेलफेयर पार्टी या पोपुलर फ्रंट की एस. डी. पी. आई. करे तो समझ में भी आता है. पर आप तो पसमांदा तबके से आते हैं इसके बावजूद आप की आँखों से इस हकीकत का ओझल रह जाना मेरे लिए नाकाबिले समझ है.

जब आप के ऊपर जानलेवा हमला हुआ तो आपकी पार्टी की तरफ से जो प्रेस-रिलीज़ आई उस में यह कहा गया की जो सियासी पार्टियां मुस्लिम वोट बैंक की सियासत करती रही हैं और उनसे आपका मुस्लिम सियासत में बढ़ता हुआ कद बर्दाश्त नहीं हो रहा है यह करतूत उनकी हो सकती है. मुमकिन है कि ऐसा ही हो. पर मेरा कहना है कि आप ग़लत जगह अपना कद बढ़ा ही क्यों रहे हैं? जो मुस्लिम वोट बैंक की सियासत करते हैं उन्हें करने दीजिए. आप उत्तर प्रदेश में पसमांदा वोट बैंक तैयार कीजिये जो की उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का कम-से-कम 15% होता है और अति-पिछड़ा और महादलित तबके के लीडरों से एकता कायम कर के एक नए गठबंधन के साथ 2012 के चुनाव में उतरिये. धर्म की एकता के मोह का तिरस्कार कीजिये और सारे धर्मों की कमज़ोर जातियों की बहुजन एकता पर काम कीजिये. इस से साम्प्रदायिकता का खेल भी खत्म होगा जिसे सारे धर्मों की उच्च जातियां अपने स्वार्थ के लिए चलाती हैं और कमज़ोर जातियों को धर्म के नाम पर आपस में लड़ाती हैं.

यह भी गौर कीजिये की जिस तरह बाबू जगजीवन राम का इस्तेमाल कांग्रेस ने अम्बेडकर की मौलिक दलित राजनीती को कुचलने के लिए किया था, कहीं आप का इस्तेमाल अशरफिया तबका पसमांदा राजनीती की धार को कुंद करने के लिए तो नहीं कर रहा है? ‘पसमांदा’ शब्द अशरफिया की आँखों में उतना ही चुभता है जितना दलित शब्द सवर्णों की आँखों में. अगर पसमांदा मुसलमानों का उद्धार मुस्लिम राजनीती को करना होता तो अब तक कर लिया होता. अब अगर कुछ इंसाफपसंद अशरफिया लोग यह सोचते हैं की मुस्लिम राजनीती के अंदर पसमांदा को इन्साफ दिला देंगे तो या तो वह पसमांदा को बेवकूफ बना रहे हैं या उनको अपने अशरफिया भाइयों पर ज़रूरत से ज्यादा भरोसा है. अब बहुत देर हो चुकी है हृदयपरिवर्तन के लिए. मामला कुछ भले लोगों के दिल का नहीं बल्कि सत्ता का है जो बहुत निर्मम होती है और संरचनात्मक प्रक्रियाओं से भी नियंत्रित होती है.  तारीख गवाह है कि इतिहास का पहिया कभी भी उल्टा नहीं घूमता है. अगर आप गौर से सोचेंगे तो अब मुस्लिम राजनीती घाटे का सौदा है और न्यायोचित भी नहीं है. पसमांदा राजनीती भविष्य की राजनीती है. इस नौका पर जितनी जल्दी सवार हो सकते हैं सवार होने की कोशिश करें.

उत्तर प्रदेश २०१२ के संदर्भ में जीतने वाला और न्यायोचित गठबंधन पसमांदा-महादलित-अतिपिछड़ा का ही हो सकता है. इस गठबंधन में आप महिलाओं को और सवर्णों और अशरफिया तबकों के गरीब सदस्यों को भी जोड़ने का ईमानदाराना प्रयास करें. अगर आप यह कर पाते हैं तो सही मायने में यह जाति-वर्ग का प्रभावशाली और ऐतिहासिक गठबंधन बनेगा. आपको अब इंडिया टुडे में मिली प्रशंसा के आगे सोचने की ज़रूरत है. सियासत एक मुश्किल खेल है और आप अभी भी जो कर रहे हैं वह चुनोतियों से भरा हुआ है. मेरी गुज़ारिश बस इतनी है कि थोड़ी ज़हमत और...

इस उम्मीद के साथ कि आप मेरी बातों को अन्यथा नहीं लेंगे और जब भी मुमकिन हो इस वार्तालाप को आगे बढ़ाएंगे. आप जल्दी ठीक हो जायें मैं ऐसी कामना करता हूँ.

आपका,
खालिद अनीस अंसारी




                                      
                           
               

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